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________________ चतुर्विंशतिसंधानकाव्य प्राचार्य कुन्दनलाल जैन, विश्वासनगर, दिल्ली आदरणीय श्री अगरचन्दजी नाहटाने कादम्बिनीके मार्च ७२ के मङ्कमें 'सप्तसन्धान' नामक एक अद्भूत काव्यकी चर्चा की है। यहाँ मैं उसी प्रकारके एक अन्य काव्यकी सूचना प्रस्तुत कर रहा हूँ जिसमें एक श्लोकके चौबीस अर्थ निकाले गये हैं। यह अद्भुत काव्य है-'चतुर्विंशतिसंधानकाव्य'। इसके रचयिता पं० जगन्नाथ (सं० १७११) हैं जो भट्टारक नरेन्द्रकीतिके शिष्य थे। पं० जगन्नाथने इस प्रतिभाशील विलक्षण काव्यके अर्थकी प्रामाणिकता एवं स्पष्टता हेतु स्वयं ही 'स्वोपज्ञ' नामसे टोका भी रची थी, जिसमें कविचक्रवर्ती श्री जगन्नाथने प्रत्येक श्लोकके चौबीस अर्थ निकाले हैं, जो वृषभादि महावीर पर्यन्त चौबीस तीर्थकरोंके पक्षमें अलग-अलग निकलते हैं। यह अद्भुत काव्य सन् १९२१ में रावजी सखारामजी दोशी, शोलापुरसे प्रकाशित हो चुका है। उदाहरणके लिये, निम्न श्लोक प्रस्तुत है : श्रेयान् श्रीवासुपूज्यो वृषभजिनपतिः श्रीमांकोऽथधर्मो, हर्यकः पुष्पदन्तो मुनिसुब्रतजिनोऽनंतवाक् श्रीसुर्वः । शान्तिपद्मप्रभोऽरो विमलविभरसौ वर्धमानोप्यजांको, मल्लिमिर्मिमा सुमति खलु सच्छ्रीजगन्नाथ धीरम् ॥ उपर्युक्त स्रग्धरा छन्दको २४ बार लिखकर इस विचक्षण कविने अलग-अलग सभी तीर्थंकरोंकी स्तुति-परक टीका लिखी है। पं० जगन्नाथको यद्यपि संस्कृत भाषा तथा उसके अनेकार्थवाची शब्दों के महान सामर्थ्यपर पूर्णाधिकार प्राप्त था, फिर भी लोगोंके पल्लवग्राही पाण्डित्यके कारण उनकी रचना की आलोचना प्रत्यालोचना न होने लगे और लोग इस काव्यकी प्रामाणिकता एवं श्रेष्ठताके विषयमें शङ्कालु न हो उठे, इसीलिये उन्होंने एकाक्षरकोषकी सहायता लेनेका स्पष्ट उल्लेख किया है । एक दूसरे श्लोकके बाद वे आगे लिखते हैं : चतुर्विशतिजिनानामेकपद्यम् कृत्वा तस्य चतुर्विशतिभिरर्थैर्जगन्नाथस्तान् स्तौति, तावदादिजिनस्य, वृषभस्य स्तुतिः प्रारभ्यते । इति चतुर्विशतिजिनस्तुतावेकाक्षरप्रकाशिकायां भट्टारकनरेन्द्रकीर्तिमुख्यशिष्यपं० जगन्नाथविरचितायां प्रथमतीर्थंकरश्रीवृषभनाथस्य स्तुतिः समाप्ता। कविने प्रस्तुत रचना वैसाख सुदी ५ सं० १६९९ रविवारको अम्बावत्पुर ( राजस्थान ) में समाप्त की थी। यह नगर तक्षकपुर ( टोड़ा राज० ) के आस-पास कहीं होगा। तक्षकपुर जैन ग्रन्थोंके पुनर्लेखन एवं निर्माणका प्रमुख केन्द्र था । यहीं भट्टारक नरेन्द्रकीर्तिकी प्रसिद्ध पाठशाला भी थी । कविका जन्म खण्डेलवालवंशोद्भव सोगानी गोत्रिय शाह पोमराज श्रेष्ठिके घर हुआ था। इनके अनुज कवि वादिराज ( १७२९ सं० ) भी संस्कृतके प्रकाण्ड विद्वान थे जिन्होंने वाग्भट्टालङ्कारकी 'काव्यचन्द्रिका' टीका तथा 'ज्ञानलोचनस्तोत्र' की रचना की थी।। कविका जन्म सं० १६६० के लगभग किसी समय होना चाहिये । कविके अनुज श्री वादिराज महाराज जयसिंहके राज्यमें किसी शीर्षस्थ पद पर विराजमान थे और अपनी श्रेष्ठताके लिये प्रसिद्ध थे । इनके रामचन्द्र, लालजी, नेमिदास तथा विमलदास नामक चार पुत्र थे। २९ - २२५ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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