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________________ पण्डित संस्था खड़ी नहीं करता है । संस्था खड़ी करके पदाधिकारी सभी सेठ लोग, धनी लोग बन जाते हैं। और अपना नाम बनाये रखनेके लिए पण्डितको प्रचारक बनाकर रख लेते हैं कि बेटा, तू इस संस्था को चन्दा ला कर चला तथा स्वयं भी कमा खा । पण्डितको सेठोंकी संस्था चलानी पड़ती है, तो काम निकालनेके लिये गधेको भी बाप भी बनाना पड़ता है। इतना कहकर पण्डित जी बैठ गये। लोगोंने फुसफुस करते हुए कहा कि अभी पण्डिताई जीवित है । जब तक पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री जैसे स्वतंत्र विचारक तथा बिना लोभ तथा भयके सही बात कहने वाले हैं, तभी तक पण्डिताई जीवित है, ऐसा मानना चाहिये। ऐसे प्रेरक संस्मरणके साथ ही मैं पण्डितजी के प्रति अपना आदरभाव व्यक्त करता हूँ । जैन समाजके सुमेरु प्रो० श्रीचन्द्र जैन, उज्जैन, ( म०प्र०) पण्डितजी निश्चयतः आजकी युवा पीढ़ी के लिए आदर्श हैं जिन्होंने अपना सर्वस्व त्यागकर जनजनकी सेवामें 'निज' को लगाया । उन्होंने न कभी समाजसे कुछ चाहा और न उससे किसी भी प्रकार की अपेक्षायें कीं । पूज्य पण्डितजी इस तथ्यको भली-भांति समझते हैं कि जो समाजका किसी भी रूपमें मुखापेक्षी होता है, वह अपमानित, तिरस्कृत एवं अवनत किया जाता है। वही मानव प्रतिष्ठित होकर अपना सिर ऊँचा उठाता है और निर्भीक होकर चलता है जो स्वार्थी समाज को अपने संयमी, त्यागी तथा साधनामयी जीवनसे निरन्तर उपकृत करता रहता है। यह समाज की विकृति नहीं है, अपितु काल दोष है धनपतियों की लालसाओं तथा कुप्रवृत्तियोंसे पण्डितजी अच्छी तरह परिचित हैं । फलतः उनकी जीवन्तता म कभी अनादरसे विकृत बनी और न कभी अवान्छित क्रिया कलापोंस उद्वेलित हुई। विवश होकर भी इस मानव सिंहने न संकीर्णताको अपनाया और न बाह्य आडम्बरकी परिपुष्टि की। आपका चिन्तन-मनन बड़ा तलस्पर्शी, विचारोत्तेजक, निर्बन्ध और समुज्ज्वल है । गंगाकी धाराकी भाँति आपकी सतत प्रवाहमयी शैली जन-जनके मानसको मोह लेती है । पण्डितजी प्रगल्भ वाग्मी, निर्भीक वक्ता, अनासक्त योगी तथा सरलताकी प्रतिमूर्ति हैं। आपके अनेक ग्रन्थोंसे आपकी स्थितप्रज्ञता, विशाल पाण्डित्य और गंभीर अध्ययनशीलता मुखर हो उठती हैं। स्याद्वाद महाविद्यालय, काशीके अधिष्ठाताके रूपमें आपने अपमाननाको उल्लासकी तरंग, अवसादके क्षणोंको आनन्दकी किरण, अवरोधको सुधार और विपत्तिको उत्थानकी सरस सरणी स्वीकारा। इसलिए पूज्य पण्डितजीको सन्त कबीरका यह छन्द प्रिय लगता है ज्ञान- रवि रश्मियोंसे प्रतिभासित पूज्य पण्डितजीका विविध मानवीय विराद जागरण शाश्वत अध्यात्मवादका प्रतीक बने । ३ निन्दक नियरे राखिए, आंगन कुटी छवाय । बिन पानी बिन साबुने, निर्मल करे सुभाय ॥ Jain Education International - - १७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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