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धर्मशास्त्र मय सब जग जानी
प्रो० खुशाल चन्द्र गोरावाला
सामलकी महावीर पाठशालासे प्रवेशिका उत्तीर्णकर मैं स्याद्वाद महाविद्यालय में प्रविष्ट हुआ और २९ जुलाई १९२८ को प्रातः धर्माध्यापकजी पं० कैलाशचन्द्र सिद्धान्त शास्त्रीकी कक्षा में सागार धर्मामृत लेकर उपस्थित हुआ । मैंने देखा कि लम्बी बीमारीसे उभरते, खाँसते - खखारते और दुर्बल अध्यापकजी बिना पुस्तक के ही पढ़ा रहे हैं। बड़ी कक्षा के छात्रोंसे जाना कि कर्मकाण्ड वगैरह भी इसी तरह पढ़ाते हैं, क्योंकि मुरैना सिद्धान्त विद्यालयके दिग्गज विद्वानोंके शिष्य हैं ।
यद्यपि विद्यालय गृहपतिको अन्य अध्यापकसे क्या, धर्माध्यापक ( प्रधानाध्यापकजी ) से भी अधिक वेतन तथा सुविधाएं देकर तथा प्रबन्ध समासे अलग रखकर धर्माध्यापकीकी समुचित गरिमाको स्वयं दये था । तथापि दूसरोंकी नजर में अल्पज्ञ या अज्ञ बनकर भी अपने कर्त्तव्य स्वार्थको सर्वोपरि करके चलनेवाले धर्माध्यापक पं० कैलाशचन्द्रजीने अपने ज्ञानकी पुष्टि तथा वक्तृताका ऐसा विकास किया कि दो वर्ष बाद जब काशी विश्वविद्यालय के मानद जैन धर्म प्राध्यापकके पदके लिये पं० कैलाशचन्द्र जीके साथ आचार्य एवं वयसा प्रौढ़ बड़े छात्र भी अभ्यथा हुए थे, तब प्रोफेसर स्व० बॅरिस्टर चम्पतरायने उन आचार्यों की अपेक्षा पं० कैलाशचन्द्र जीके पक्षमें अपनी संस्तुति की। तदनुसार इनकी काशी विश्वविद्यालय में नियुक्ति हुई । आचार्यमन्य छात्रोंने भी उनकी विद्वत्ताका लोहा मान लिया ।
पंडितजी के सहाध्यायी स्व० पं० राजेन्द्रकुमारजी इस समय तक भा० दि० जैन शास्त्रार्थ संघके द्वारा अपना प्रभाव उत्तर भारत में जमा चुके थे । इन्होंने एक ओर अपने साथियों स्व० पं० अजितकुमार शास्त्री, पं० चैनसुखदासजी, पं० जगन्मोहनलालजी और पं० कैलाशचन्द्रजीको साथ लिया, वहीं दूसरी ओर अपने अग्रज सहाध्यायियों ( स्व० पं० तुलसीराम वाणीभूषण, पं० अर्हदासजी पानीपत, आदि ) को भी प्रतिष्ठित किया था । स्व० लाला शिब्बामलजी रईस, अम्बाला छावनीकी विशालहृदयता, जिन धर्म-प्रेम और सीमित किन्तु समय पर दत्त दानने वेदविशारद स्व० पं० मंगलसेनके अभिभावकत्व में विकसित 'संघ' को अल्प कालमें ही 'महासभा' और 'परिषद्' से आगे कर दिया था, क्योंकि आर्य समाजके साथ सफल शास्त्रार्थो को करनेके समान ही 'संघ' धार्मिक आयोजनों और धर्मगुरुओं के विहारमें आयी बाधाओंका निवारण करनेमें भी अग्रणी था । फलतः सामाजिक सम्पर्क और दिशा बोध देनेके लिए संघने जब 'जैन दर्शन' पत्रिकाको प्रकाशित किया, तो पंडित कैलाशचन्द्रजीका पत्रकारिताका प्रारम्भ हुआ, और 'जैन संदेश' साप्ताहिकके द्वारा तो समाज के समस्त पत्रोंने पं० कैलाशचन्द्रजीको मूर्धन्य सम्पादक रूपमें स्वीकार किया, भले ही कतिपय स्थितिपालक उनके विचारोंसे असहमत थे । किन्तु इससे शास्त्रीजी के प्रभावका विस्तार ही हुआ क्योंकि दशलक्षण पर्व आदिमें शास्त्र प्रवचन ओर व्याख्यानके लिए इतने निमंत्रण मिलते थे कि विद्याके अधिकारियोंको विवश होकर मना ही करना पड़ता था ।
स्याद्वाद महाविद्यालय में उच्चतम प्राच्य शिक्षण के आदर्शको पूज्यवर श्री १०५ गणेशवण ने स्वयं आदर्श न्यायाचार्य बनकर कार्यान्वित किया था। जब स्व० ० शीतलप्रसादजी अधिष्ठाता हुए, तो इन्होंने स्व० सेठ माणिकचन्द्र जे० पी० के विचारोंसे सहमत होकर न्यायतीर्थ, शास्त्री आदिके साथ पाश्चात्य उच्च शिक्षा ( बी० ए०, एल-एल० बी० ) का विद्यालय में सूत्रपात किया था । परिवर्तित परिस्थितिवश जब ब्रह्मचारीजीने अधिष्ठातृत्व छोड़ा, तो पुनः पूज्य श्री १०५ गणेशवर्णी महाराज अधिष्ठाता हुए । इन्होंने स्याद्वाद महाविद्यालय के शिक्षण लक्ष्यको सिद्धान्तशास्त्री, आचार्य और एम० ए० तक पहुँचा दिया |
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