________________
उनके ऐसे उत्कृष्ट जीवनके प्रति मेरी आस्था है। मैं उनका अभिनन्दन करता है तथा उनके दीर्घ जीवनकी कामना करता हूँ।
सहपाठी के प्रति
विद्याभूषण के० भुजबली शास्त्री श्री शास्त्रीजी मेरे सहपाठी हैं। हम दोनों मोरेनामें साथ-साथ पढ़े थे। सिद्धान्ताचार्य उपाधि भी आरामें विहारके राज्यपालके हस्तसे एक साथ मिली थी। आपसमें हम लोगों में अच्छी मित्रता भी है। शास्त्रीजीकी बहुमूल्य तीन कृतियोंका मैंने कन्नड़ भाषामें अनुवाद भी किया। शास्त्रीजी अनेक विषयोंके अधिकारी विद्वान् हैं। शास्त्रीजी अनेक अमूल्य ग्रन्थोंके लेखक, अनुवादक एवं सम्पादक हैं। खासकर जैन समाज शास्त्रीजीको कभी नहीं भूल सकता। आपकी सेवा बहुमूल्य है। मेरी हार्दिक शुभकामना है कि शास्त्रीजी शतायु होकर इतोप्यधिक धर्म, साहित्य और समाजकी सेवा कर अपने जन्मको सार्थक एवं पवित्र बनावें।
भैया कैलाशचन्द्र
भाई श्री हरिश्चन्द्र, जबलपुर प्रथम विश्वयुद्धके वर्ष १९१४ में मेरे पिताजी श्री सिं० लक्ष्मीचन्द्रजीने मुझे स्याद्वाद महाविद्यालय भदैनी, वाराणसीमें अध्ययन हेतु प्रविष्ट कराया। उस समय विद्यालयमें ७७ विद्यार्थी थे। वहाँ धर्म, न्याय. साहित्य, व्याकरण तथा अंग्रेजीका अध्यापन होता था और पण्डित उमरावसिंहजी ( बाद में व ज्ञानानन्दजी) हमारे प्रधानाध्यापक थे।
मेरे साथ भाई कैलाशचन्द्रजी, नहटौर, पं० राजेन्द्र कुमारजी, कासगंज तथा अन्य बारह विद्यार्थी प्रथमामें पढ़ते थे। मुझे पं० सुब्रह्मण्यं शास्त्री, पं० अंबादत्त शास्त्री ( न्याय ), पं० घुन्दराज शास्त्री ( साहित्य ) तथा पं० उमरावसिंहजी (धर्म ) पढ़ाते थे। उस समय बाबू सूमतिलालजी मन्त्री तथा पूज्य गणेशप्रसादजी वर्णी अधिष्ठाता थे। इन सभीका मेरे ऊपर विशेष स्नेह था। वे हम सभी का पितृवत् पालन करते थे । हम सभी साथियोंमें भाई कैलाशचन्द्रजीकी बुद्धि अत्यन्त प्रखर थी। यही कारण है कि वे १९१९ में प्रथमा परीक्षामें प्रथमश्रेणीमें उत्तीर्ण हए थे। उस समय मेरे साथ पढ़नेवालोंमें पं० चैनसुखदासजी (जयपुर), जीवन्धरजी न्यायतीर्थ तथा मन्नालाल रांधेलीय, सागर भी थे।
-८
-
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org