________________
सन्त सरस्वतीपुत्र
ब्र० जगन्मोहनलाल शास्त्री, कुंडलपुर
पण्डित कैलाशचन्द्रजीका नाम आज जैन समाजके बच्चे-बच्चेकी जबान पर है। सभी उनसे परिचित हैं, भारतके कोने-कोनेमें उन्होंने धर्मप्रचार किया है। सैकड़ों प्रतिष्ठाओं, समाजों, सोसाइटियों, धर्मप्रचार संस्थाधिवेशनों व यूनिवर्सिटियों तथा सेमिनारोंमें उनके भाषण हुए। दशलाक्षणिक महापर्व, महावीर जयन्ती, अष्टान्हिक महापर्व, ऋषभ जयन्ती आदि उत्सवोंपर भी अनेक स्थानोंमें उनके गम्भीर ओजस्वी भाषण हुए हैं । उनके भाषणकी लोकप्रियताका यही प्रमाण है कि उनकी सभामें लोग शांतिपूर्वक मौनसे सुनते हैं । वे अनेकों महनीय ग्रन्थोंके अनुवादक तथा अनेकोंकी भमिकाओंके लेखक हैं । जैन सन्देशके सम्पादक आप वर्षों से हैं, अन्य दिगम्बर, श्वेताम्बर पत्रिकाओंमें उनसे विविध विषयों पर सामयिक उद्बोधक लेखोंने भी उनकी प्रतिष्ठा में बहत बड़ा योगदान किया है।
वे एक समाजशास्त्री, समाजकी नाड़ी पहिचाननेवाले, निर्भीक लेखक तथा वक्ता हैं। वर्तमान सामाजिक विवादके बीच वे निष्पक्ष लेखनी द्वारा यथार्थ मार्गका दर्शन समाजको कराते हैं । वर्तमानके विचारजन्य संघर्ष में उनके लेख मार्गदर्शक होते हैं। विस्तृत समुद्रकी विशाल जलराशिके अन्धकारमें प्रकाशस्तम्भकी तरह वे दिशा बाँध देते हैं । उनका विरोध करनेवाले कुछ विद्वज्जन भी हैं, तथापि वे उनके द्वारा फैलाये गये अपने मिथ्या अपवादोंकी चिन्ता न कर मार्गमें अविचलित रहकर अपनी आगम श्रद्धाका व आगम ज्ञानका परिचय सदा अपनी लेखनी द्वारा देते रहते हैं। उनको इस निष्पक्ष लेखनीके कारण अकारण ही कुछ विरोधी विद्वानोंने उनपर सोनगढ़ द्वारा सहायता प्राप्त करनेके मिथ्या आक्षेप किये, और ऐसा कर उन्होंने अपनी निम्न मनोवृत्तिका परिचय दिया। मेरा छात्रकालसे ही पंडितजीसे सहयोग तथा परिचय है । अतः मैं जानता हूँ कि वे सोनगढ़की यथार्थ बातोंके समर्थक हैं तथा गलत बातोंके आलोचक भी हैं। आज तक सोनगढ़ तो क्या, समाजके किसी नगरसे उन्होंने भेंट भी नहीं ली, जो लिया वह काशी विद्यालय के लिये ही लिया जो कि विद्यालयमें जमा है ।
स्याद्वाद जैन महाविद्यालयकी ५० वर्ष उन्होंने सेवा की तथा सहस्रों विद्वान् तैयार किए । प्रकारान्तरसे इस ५० वर्षके युगमें उत्पन्न काशीके श्रेष्ठतम विद्वान उनकी सेवाके फल है।
भा०दि० जनसंघ मथुराका जीवनकाल तो उनकी सेवासे भरा है। जैन संदेशका समस्त जीवन उनकी दिव्यदृष्टिसे खड़ा है। वर्णी ग्रन्थमालाके वे आदिसे कर्मठ सदस्य हैं तथा उससे प्रकाशित अनेक ग्रन्थोंके लेखक व सम्पादक हैं । जयधवलाके सफल टीकाकार है जो अनेक भागों तक चली है। 'जैन धर्म' उनकी अनुपम कृति है जो जैन-जनेतरोंको जैनधर्मका परिज्ञान कराने में सक्षम है।। - आज ३०-३५ वर्षसे इनकी पत्नी मस्तिष्ककी एक खराबीसे रुग्ण हैं। अपने पुत्रके पास राँची रहती हैं । पण्डितजी ब्रह्मचर्यपूर्वक अपना जीवन सरस्वती माँकी सेवामें लगाये हुए हैं। स्याद्वाद विद्यालयके छात्रावासमें ही वे अपना भोजन खर्च नियमित चुकाकर छात्रोंके भोजनके बाद बचा हुआ भोजन करते हैं । बाजारका कुछ खाते नहीं । ब्रह्मचर्यपूर्वक जीवन और अस्वादवत इनके इतने उत्कृष्ट हैं कि इन्हें गृहवासी सन्त कहा जा सकता है। अपने इस नीरस जीवनको इन्होंने कभी नीरस नहीं माना, सरस ही बनाए रक्खा । सरस्वती सेवाका रसास्वाद ही इनका उत्कृष्ट भोजन रहा है। वे ज्ञान सरोवर में ही सदा रमण करते हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org