SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 294
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३. एक सूत्रके स्थान पर चार सूत्र । यथापाणिनि-'अचतुरविचतुरसुचतुरस्त्रीपुंसधेन्वनडुहमिवाङमनसाक्षिभुवदारगवो र्वष्ठीवपदष्ठीवनक्त न्दिवरात्रिन्दिवाहदिवसरजसनिःश्रेयसपुरुषायुषव्यायुषत्र्यायुषय॑जुषजातोक्षवृद्धोक्षोपशुनगो ष्ठश्वाः ' (५।४।७७) शाकटायन-'जातमहवृद्धादुक्ष्णः कर्मधारयात्' (२।१।१५९), 'स्त्रियाः पुंसो द्वन्द्वाच्च' (१५९), 'धेन्वनडुहर्ग्यजुषाहोरात्रनक्तन्दिवरात्रिन्दिवाहदिवोर्वष्ठीवपदष्ठीवाक्षि ध्रुवदारगवम्'(१६०) ४. दो सूत्रोंके स्थान पर पाँच सूत्र । यथापाणिनि- 'शमित्यष्टाभ्यो घिनुण्' (३।२।१४१), 'सम्पृचानुरुघाङ्यमाङ्यसपरिसृसंसृजपरिदेवि संज्वरपरिक्षिपपरिसृपखिदपरिदहपरिमुहदुषद्विषहदुहयुजाक्रीडविविचत्यजरजभजातिचरा पचरामुषाभ्याहनश्च' (३।२।१४२) शाकटायन-'शमष्टकदुषद्विषद्रुहदुहयुजत्यजरजभजाभ्याहनानुरुधो घिनन्' (४।३।२४२), 'आङः क्रीड्यं यस्मुषः' (४।३।२४३), 'समः पृच्सृजज्वरोऽकर्मकात्' (४।३।२४४), 'चरोऽतौ च, (४।३।२४७), 'परेः सृवद्दहमुहः' (४।३।२४९) अनुवृत्ति, विकल्पों, अर्थविशेषों तथा निपातनोंकी दृष्टिसे शाकटायनके इन प्रयासोंका विस्तृत अध्ययन अत्यावश्यक है। शाक्टायन व्याकरणमें एक सौ साठ सूत्र ऐसे हैं जो पाणिनीय सूत्रोंके तुल्यवर्तनीक हैं। उनमें कुछ लम्बे सूत्र भी है । इस प्रकारके सूत्रोंके विषयमें भी यह अध्येतव्य है कि शाकटायनने जिस प्रक्रियासे पाणिनीय सूत्रोंको तोड़कर कई सूत्र बनाये हैं क्या उस प्रक्रियासे इन समानवर्तनीक सूत्रोंके लम्बे सूत्रोंका योगविभाग किया जा सकता है ? ___अपने व्याकरणको पृथुलतासे बचानेके लिये शाकटायनने पाणिनीय व्याकरणकी भाँति वार्तिकोंको अलग नहीं पढा । कात्यायन रचित वात्तिकोंमें बिखरे सभी नियमोंको शाकटायनने सत्रोंमें निबद्ध कर लिया ताकि अध्येताओंको पथक्शः वात्तिकोंके स्मरणकी आवश्यकता न पड़े। वात्ति कोंके इन नियमोंके लिये शाकटायनने स्वतन्त्र सूत्रोंकी रचना नहीं की। किन्तु सम्बद्ध सूत्रोंमें ही वात्ति कोंके नियम पचा लिये हैं। लगभग तीन सौ सूत्र ऐसे हैं जो केवल वार्तिकोंके स्थान पर बनाये गये हैं । शाकटायन व्याकरण में अधिक संख्या ऐसे सूत्रोंकी है, जिनमें पाणिनीय सूत्रोंको बड़ी सूझ-बूझके साथ संक्षिप्त कर दिया गया है। ऐसा करने पर विषयवस्तु में कोई अन्तर नहीं आ पाया है। ऐसे सूत्रोंकी संख्या लगभग पन्द्रह सौ है । पाणिनीय व्याकरणका सम्पूर्ण तत्त्व पातञ्जल महाभाष्यमें निहित है । शाकटायन व्याकरणका अनुशीलन करनेसे ज्ञात होता है कि पाल्यकीर्तिने महाभाष्यका कितना तलस्पर्शी ज्ञान प्राप्त किया था और वे उसमें कितने नदीष्ण हो गये थे। उन्होंने अपने सत्रोंमें महाभाष्यकी इष्टियां तथा उसके सभी वचन या पचा लिये हैं । इष्टियोंकी संख्या अधिक नहीं मिलती, पर भाष्यवचनोंकी संख्या लगभग पैंतीस है । शाकटायन ने उन्हें छाँटकर सूत्रबद्ध कर दिया है । पाणिनीय व्याकरणमें गणसूत्र भी विद्यमान हैं, जिनका अध्ययन अध्येताको सूत्रों तथा वार्तिकोंसे अलग करना पड़ता है । शाकटायनने उनके नियमोंको भी यथास्थान सूत्रबद्ध कर लिया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy