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________________ आवश्यकता होती है । प्राच्य विद्याओंके प्राचीन ग्रन्थोंमें लेखक सम्बन्धी जानकारी एक दुष्कर कार्य है क्योंकि उनके लेखक 'यशःकाये में विश्वास करते थे। यही कारण है कि अनेक लेखकोंके जीवन व समयके अबतक मतभेद चल रहे हैं । ___अनुवादका उद्देश्य जटिल एवं अन्य भाषाओंमें उपलब्ध ग्रन्थ या विषय-वस्तुको सरल जनभाषामें प्रस्तुत कर लोकोपकारकी भावनाको मूर्तरूप देना है। भारतमें पाश्चात्य विद्याके प्रसारसे अंग्रेजीके अनेक विषयोंके ग्रंथोंका भारतीय भाषाओंमें अनुवाद किया गया है। इसी प्रकार, पाश्चात्य जगत्को भारतीय विद्याओंसे परिचित करानेके लिए अनेक भारतीय ग्रन्थोंका अंग्रेजीमें अनुवाद हआ है। उच्च शिक्षाका माध्यम पर्याप्त समय तक अंग्रेजी होनेके कारण भारतीय विद्याओंके सम्बन्धमें अनेक पुस्तकें भी मौलिकतः अंग्रेजीमें लिखी गई हैं। वस्तुतः भारतीय विद्याओंके महत्त्वका आभास भी हमें पाश्चात्य लेखकों तथा अंग्रेजीके ग्रन्थोंसे ही हुआ है । सम्भवतः भारतीय विद्याओंके साहित्यके जनभाषाओंमें अनुवादकी प्रेरणाका यही स्रोत रहा है जिससे भारतवासी अपने ऋषियों व आचार्यो के ज्ञानको पढ़ सकें, जान सकें। संस्कृत एवं प्राकृत भाषाके लोकभाषा न बन पानेमें अनेक कारण रहे है । पर उसमें निबद्ध ज्ञान आज भी अनेक दृष्टियोंसे अद्वितीय माना जाता है। जैन विद्याओंसे सम्बन्धित संस्कृत-प्राकृतके ग्रन्थोंका स्थान भी इसी कोटिमें आता है। अतः उस ज्ञानको बहुजन सुलभ बनानेके लिए उनका जनभाषान्तरण आवश्यक हो -तीन सौ वर्ष पहले राजस्थानमें अनेक विद्वानोंने तत्कालीन भाषामें आगम ग्रन्थोंकी टीकाएँ लिखी थीं। उसी परम्परामें वर्तमान पीढ़ीके अनेक जैन विद्वानोंने आजकी भाषामें यह कार्य किया है। पण्डित कैलाशचन्द्र जी भी ऐसे विद्वानोंमें प्रमुख हैं। आपने जयधवलाके समान आगम ग्रन्थोंके तेरह खण्डों सहित लगभग सत्ताईस ग्रन्थोंका सम्पादन और अनुवाद किया है । इस प्रकारका कुछ कार्य आज हाथमें भी है। अनुवादकी सफलताके लिए सम्बद्ध भाषाओंके ज्ञानके साथ भाव-प्रवाह और भाषा-प्रवाहकी प्राकृतिक गति आवश्यक है । अच्छा अनुवाद वह माना जाता है जिसमें यह पता ही न चले कि पाठ्यवस्तु मूल है या भाषान्तरकृत है । मूल लेखकके गूढ़ व जटिल अन्तर्विचारोंको समझकर उसे सुबोध भाषा देना अनुवादककी स्वयंकी प्रतिभा होती है। इस दृष्टिसे निश्चय ही पण्डितजी सम्पादन-अनुवाद कलाके उत्कृष्ट कोटिके धनी है। उनके द्वारा इस कोटिमें प्रणीत ग्रन्थोंकी सूची उनकी कृतियोंके अन्तर्गत दी गई है। उनके द्वारा सम्पादित-अनूदित साहित्यकी अनुमानित पृष्ठसंख्या ८००० से अधिक होगी।। ४. 'जैन सन्देश'का सम्पादन-ग्रन्थोंके सम्पादन-अनुवादके अतिरिक्त, 'जैन सन्देश'के समान साप्ताहिक पत्रका सम्पादन भी पण्डितजीकी एक प्रखर प्रवृत्ति रही है। यह जैन धर्मकी प्रतिष्ठा बढ़ाने, जैन समाजको संगठित करने तथा सामाजिक धार्मिक समस्याओंके समय समुचित मार्गदर्शन करनेमें सदैव अग्रणी रहा है। १९३९ में प्रारम्भ इस पत्रने जैन जगत्में अपने सम्पादकके कारण अपना एक विशिष्ट स्थान बना रखा है। इसके सामान्य एवं सम्पादकीय लेखोंकी कोटिमें आकर्षण रहा है, नवीनता रही है । सम्पादककी पक्षातीत विचारधारा पत्र की शक्ति बनी हुई है। यही कारण है कि यह पत्र समाजके अनेक झंझावातोंके बावजूद भी अपना सुदृढ आधार बनाए हुए है। पत्र सम्पादनके लिए आवश्यक बहुमुखी सूचनाओंका संधारण-समीक्षण, समय-समयपर आनेवाली सैद्धान्तिक, सामाजिक, राष्ट्रीय या अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओंके तथ्यपूर्ण विश्लेषणकी क्षमता एवं पक्षातीत स्वतंत्र मार्गदर्शनकी प्रवृत्ति पण्डितजीमें निश्चय ही विद्यमान है । इसके सम्पादकीय लेखोंके माध्यमसे उन्होंने अपनी विचारधाराओंको बड़े स्पष्ट व साहसपूर्ण ढंगसे व्यक्त किया है और समाजका विश्वास अजित किया है। अपने पुष्ट एवं आगम सम्मत विचारोंके कारण उन्हें पर्याप्त विरोधका भी सामना करना पड़ा है। आज भी वे अपनी इसी वृत्तिके कारण अनेक - ७८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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