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मुझे आपका स्नेह और आशीर्वाद ग्रहण करनेका निरन्तर गौरव रहा है । आपका प्यार और दुलार मुझे मंगलाप्रसाद पुरस्कारके समान सुख देता है ।
आपके गौरवशाली शिष्योंमें श्री चेतनलालजी जैन, डॉ० भागचन्द्रजी जैन, डॉ० नेमिचन्द्रजी जैन शास्त्री, डॉ० राजारामजी जैन इत्यादि प्रमुख हैं। अन्य भाग्यशाली शिष्य भी आपपर कुरबान रहते हैं । आपकी प्रो० खुशालचन्द्रजी गोरावालासे अनुज जैसी आत्मीयता है ।
पण्डितजीके सुपुत्र श्री सुपार्श्वकुमारजी जैन, चार्टड एकाउण्टेण्ट राँचीमें बहुत ही ऊँचे पदपर हैं । पण्डितजीने अपने हाथसे पोतेके विवाह-सुखको लूटा है, चखा है ।
____ आपने प्रसिद्ध पुस्तक 'जैनधर्म' में बहुत सरल शब्दोंमें जैनदर्शनका गूढ़ तत्त्व प्रस्तुत किया है, एक सुलझे हुए गाइडकी भाँति, सभी चिन्तकोंसे परिचय कराया है। वैदिक धर्म और हिन्दू धर्मका तुलनात्मक विश्लेषण, जैनधर्मका दर्शन, आध्यात्मरूपी मणिरत्नोंको आप जैसा अनुभवी, अध्ययनशील तथा कुशल गोताखोर ही हिन्दीके सरस्वती-मन्दिरमें पेश कर सकता था।
हमने इन्द्रभूति गौतम गणधर और कुन्दकुन्दाचार्यको नहीं देखा है, पण्डितजीको देख लिया, सब कुछ देख लिया । यह हमारे लिये गौरवकी बात है। हम उस युगमें रह रहे है जिस युगमें हमारे पण्डितजी कैलाशचन्द्रजी रह रहे है । हमें भी वही हवा लग रही है जो पण्डितजीके तपस्वी शरीरका स्पर्श कर सुगन्धमय हो रही है। आइये, आज हम पण्डितजीके भव्य ललाटपर अक्षत, पष्प और रोलीका टीका लगाकर स्वयंको सम्मानित करें ।*
पण्डितजी : प्रवृत्तियाँ और विचारधारा
सम्पादक आदरणीय पण्डित कैलाशचन्द्र जी शास्त्रीके जीवन की झलकसे स्पष्ट है कि वे विविध प्रकार की प्रतिभाओं और प्रवृत्तियोंके धनी रहें हैं । दोनों ही दृष्टियोंसे, उनका क्षेत्र व्यक्तिसे लेकर विश्व तक व्यापक रहा है। उनको विभिन्न सामाजिक, सांस्कृतिक एवं साहित्यिक प्रवत्तियोंको संक्षेपमें, निम्न आठ रूपोंमें वर्गीकृत किया जा सकता है :(१) अध्ययन-अध्यापन
(५) प्रशासन एवं मार्गदर्शन (२) मौलिक लेखन
(६) भ्रमण और धर्म प्रचार (३) सम्पादन और अनुवादन
(७) शोध प्रवृत्ति (४) जैन संदेश का संपादन
(८) राष्ट्रीय प्रवृत्तियाँ । उनके विषयमें उनके व्यक्तियोंने अपने संस्मरण लिखते समय उनकी इन प्रवत्तियोंका अपनी-अपनी दृष्टिसे रोचक विवरण प्रस्तुत किया है। उन्हें समग्रतः संकलित सारके रूपमें देना पण्डितजीके व्यक्तित्वके बहुमुखी रूपके अनुरूप ही होगा। ये प्रवृत्तियाँ उनकी विचारधाराके विविध रूपों को मुलरूपमें प्रकट करती हैं।
१. अध्ययन-अध्यापन-पण्डितजीका अध्ययन काल १९२३ तक अर्थात् उनके बीस वर्षकी
* तीर्थकर, १९७८ से साभार संक्षेपित ।
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