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________________ वय तक माना जा सकता है जब उन्होंने अध्ययन छोड़कर अध्यापनको अपना जीविका-साधन और स्याद्वाद महाविद्यालय काशी को अपना कार्य क्षेत्र बनाया । उन्होंने मख्यतः धर्म ग्रन्थों का अध्यापन किया । लेकिन सिद्धान्त ग्रन्थों पर उपलब्ध टीकाग्रन्थ न्यायशास्त्रीय मान्यताओं तथा जैनेतर मान्यताओंके खंडन-मंडनके आकर ग्रन्थ हैं, फलतः वे क्रमशः सिद्धान्तशास्त्रीके साथ साथ दर्शन व न्यायशास्त्री भी बनते गये। इसी का फल है कि उन्होंने जैन न्याय पर एक स्वतंत्र ग्रन्थ ही हिन्दीमें प्रस्तुत किया। स्याद्वाद महाविद्यालयके अब तकके लगभग १३०० स्नातकोंमेंसे लगभग ९०० स्नातक पण्डितजीके ही शिष्य रहे है जिनमेंसे आज अनेक जैन धर्म व समाजके शैक्षिक, सांस्कृतिक एवं राष्ट्रीय क्षेत्रोमें अग्रणी बने हुए हैं। ___ अध्यापनके साथ अध्ययनकी वृत्ति आपके साथ अविनाभावके रूपमें रही है। यही कारण है कि । वाकशक्ति और प्रवचनशक्ति इतनी ग्राह्य एवं सक्षम बन सकी है। कौजर बैकनने ठीक ही कहा है कि अध्यापन और भाषणके लिए कई गुना और कई बार अध्ययन करना पड़ता है। अध्ययन-अध्यापनकी इस प्रवृत्ति में उन्हें संस्कृतमय धर्मशिक्षाकी जटिलताको अनुभव-गम्य करनेमें सहायता दी जिससे उन्हें भावी पीढ़ीके हितके लिए सिद्धान्त ग्रन्थोंके हिन्दीमें अनुवाद और सम्पादनकी प्रेरणा मिली। यही नहीं, अपनी अध्ययनशील प्रवृत्ति के कारण उन्हें जैनधर्म सम्बन्धी जैनेतर प्राच्य एवं पाश्चात्य भ्रामक मान्यताओं का भी भान हुआ जिसे दूर करनेके लिए उन्होंने और भी गहनतर अध्ययन और स्रजनात्मक लेखन किया । यद्यपि ४७ वर्षों के बाद १९७२ में उनके अध्यापनकी जीविकावृत्ति औपचारिक रूपसे समाप्त हो गई है, फिर भी उनकी अध्ययनवृत्ति अभी भी पूर्ववत है जो विगत अनेक वर्षों से उनके अनेक प्रकारके प्रकाशित व अप्रकाशित लेखोंके रूप में प्रकट होती रहती है। अध्यापक होनेके कारण स्पष्टतः ही उनका सारा जीवन जैन विद्यालयोंके अपने सहयोगी अध्यापकों, विद्यार्थियों तथा शिक्षणदात्री संस्थाओं तथा परीक्षा पद्धतियोंसे सम्बन्धित रहा है। अपने सम्पादकीय लेखोंके माध्यमसे इन क्षेत्रोंसे सम्बन्धित समस्याओंपर उन्होंने अनेक बार प्रकाश डाला है। एक ओर जहाँ वे और शिक्षार्थियोंके कर्तव्य और उत्तरदायित्वको वर्तमान अवस्थासे चिन्तित हैं, वहीं वे शिक्षकोंकी आर्थिक दुरवस्था एवं समाज द्वारा उनके हितोंकी उपेक्षावृत्तिसे रोषपूर्ण भी दिखते हैं । वे शिक्षणको मानवके जीवन निर्माणका माध्यम मानते हैं, फिर भी उसे व्यवहारिक जीवनसे असंबद्ध या विलगित रूपमें नहीं देखना चाहते इसीलिये उन्हें जैन विद्यालयोंके लिए सुयोग्य विद्वानोंके वर्तमान अभावकी स्थिति अखरती है और वे इस दिशामें पर्याप्त सुधार चाहते हैं । वे विद्यार्थियोंकी वर्तमान मनोवृत्ति व प्रवृत्तिसे भी दुखी हैं और उनकी अध्ययन वृत्तिको जगाना चाहते हैं। उन्हें परीक्षा पद्धति एवं परीक्षकोंकी अभ्युक्तियोंसे भी कुछ क्षोभ है क्योंकि प्रश्नपत्रोंमें ऐसी विधिसे प्रश्न पूछे जाते हैं जो अध्ययन-विधि व विषयपर या तो आधारित नहीं होते या उन्नत बौद्धिक स्तरपर चले जाते हैं। इसीलिये सन् १९४४ में ही उन्हें भारतको भावी शिक्षापर लिखना पड़ा था। जिसमें सामाजिक परिवेशसे राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य तकका व्यापक लक्ष्य निहित था । पण्डितजी यह मानते है कि आज धार्मिक शिक्षाका स्तर गिर रहा है। इसे बनाये रखनेके लिये विद्वानोंकी परम्पराका संरक्षण आवश्यक है। इस अर्थ-प्रधान युगमें पाण्डित्यका न्यूक्लियन एवं संबर्धन उन्हें इसलिये भी अभीष्ट है कि इसीसे मूलभूत सिद्धान्तोंकी व्याख्या एवं सुरक्षा हो सकती है। इसके लिये वे विद्यालयोंमें कार्यरत् विद्वानोंकी आर्थिक स्थितिको सुधारनेके पक्षधर रहे हैं । वह स्वतंत्रचेता विद्वान हैं और नयी पीढ़ीसे भी पक्षातीत व्याख्या एवं मार्गदर्शनकी आशा रखते हैं। २. मौलिक लेखन-यह माना जाता है कि अध्ययनशील अध्यापक बिना लेखनी चलाये रह नहीं सकता । ऐसी लेखनी व्यक्तिको विचार एवं अवधारणकी शक्ति, ज्ञानकी मशालको जन-जन तक पहुँचानेकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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