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व्यंजना शक्ति भी प्रचुर परिलक्षित हुई है जिनका उल्लेख युवाचार्य महाप्रज्ञजीके समान मनीषीने अपनी अभीप्सामें व्यक्त किया है। उनकी इस वृत्तिके कारण कुछ लोग उन्हें 'जैनधर्मका इन्साइक्लोपीडिया' ही मानते हैं। इसीलिए अनेक देशी और विदेशी विद्वान् अपने शोधकार्य में उनसे सदा मार्गदर्शन लेने आते हैं। यह सही है कि उन्होंने शोधकार्य के माध्यमसे आजके विश्वविद्यालयोंसे कोई उपाधि नहीं प्राप्त की है, पर उनकी अनेकों प्रस्तावनायें और ऐतिहासिक निबन्ध आजकी किसी भी पी-एच० डी० के शोधप्रबन्धसे निश्चित रूपसे उत्कृष्ट कोटिमें आती हैं। उनमें जो अध्ययनका गाम्भीर्य और अभिव्यक्तिकी मनोहरता है, वह आजके प्रबन्धोंमें कहाँ मिलती है ? हमें इस बातकी प्रसन्नता है कि उनके अनेक शिष्य भी इसी प्रकारकी गंभीर शोध दिशामें लगे हुए हैं और जैन दर्शन तथा संस्कृतिके अज्ञात, दुरूह एवं उपगृहित अंगोंका उद्घाटन कर रहे हैं। वर्तमान में, आकस्मिक रूपमें उठने वाले अनेक सैद्धान्तिक महत्वके प्रश्नों पर उनके लेख इस दिशामें मननीय है । पंडितजी आज भी अपनी इस प्रवृत्तिको जीवन्त रूपमें चला रहे है ।
८. राष्ट्रीय प्रवृत्तियाँ-जैन समाज भारतीय राष्ट्र का ही एक अंग है। अतः उसका विद्वद्वन्द अपने समाजको राष्ट्रीय समस्याओंके समय उसमें सक्रिय भाग लेनेके लिये सदैव प्रेरित करे, यह स्वाभाविक ही है। इसीके अनुरूप पंडितजीने भी अनेक प्रकारकी राष्ट्रीय समस्याओं पर अपने विचार व्यक्त कर समाजको मार्गदर्शन दिया है। उन्होंने स्वातंत्र्य आन्दोलनके अवसर पर अनेक प्रकारसे प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रेरणायें देकर विद्यालयके स्नातकोंमें राष्ट्रीय चेतनाको पनपाया है। उन्होंने राष्ट्र भाषाके रूप में हिन्दीका सदा समर्थन किया है। अहिंसा एवं सर्वधर्म समभाव पर उनकी लेखनी चली है। भारतीय स्वतन्त्रता प्राप्तिके अवसरपर सर्वधर्म-प्रार्थनाके अन्तर्गत जैन प्रार्थनाओंके प्रसारणके लिये उन्हें ही चना गया। महावीर निर्वाणोत्सवकी रजतशतीमें जैन गीताके रूपमें संकलित 'समण सूत्तं' का हिन्दी गद्यानुवाद भी उन्होंने ही किया है। उसके संकलनमें भी उनका योगदान अमूल्य रहा है। भारतमें समय-समय उत्पन्न होनेवाली राष्ट्रीय समस्याओं पर समाजको उचित कर्तव्य निभाने एवं समचित मनोवत्ति प्रदर्शित करनेके लिये उन्होंने सदैव आदेश लिये हैं। यही कारण है कि राष्ट्रीय विपत्तियों के समय तन, मन व धनसे राष्ट्र की सहायता और सेवा करने वालोंमें जैन समाजको अग्रणीके रूपमें माना जाता है।
इस सूक्ष्मदर्शी संक्षेपणके आधार पर पंडितजीकी बहुविध प्रवृत्तियोंके दूरदर्शी महत्वका अनुमान साज ही लगाया जा सकता है।
पण्डितजी और बुन्देलखण्ड
डॉ० नरेन्द्र विद्यार्थी, छतरपुर स्याद्वाद महाविद्यालय, काशीके भावात्मक एवं भौतिक बीजारोपणमें बन्देलखण्डकी ही अनेक विभूतियोंका हाथ रहा है। एतदर्थ एक ओर जहाँ उन्होंने जीवनाथ मिश्र जैसे विद्वानोंकी गर्दा सुनी, वहीं उन्हें अम्बादास शास्त्रीके समान पण्डितोंका प्रोत्साहन भी मिला । १२ जन. १९०५ के दिन विद्यालयके प्रथम छात्रोंमें इसी क्षेत्रके छात्र रहे हैं। फलतः बन्देलखण्डके बालकों और पालकोंमें काशीके प्रति अविरत अनुराग बना रहे, यह स्वाभाविक भी है । यही कारण है कि काशीके दूरवता होनेपर भी इस विद्यालयमें बुन्देलखण्डके छात्रोंकी संख्या सदैव दो-तिहाईके लगभग रही है। इस निष्कर्षकी पुष्टि विद्यालयकी स्वर्णजयन्ती स्मारिका,
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