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'विद्वान' विद्याके धनीका नाम नहीं है। इस शब्दसे जो सामान्य चित्र हमारे मस्तिष्कमें बनता है वह ज्ञान, मनन, साधना और निस्प हतासे संवारा हुआ एक सरस चित्र होता है। पण्डित कैलाशचन्द्रजीके व्यक्तित्वमें उस चित्रके वे सारे रंग अपने पूरे समन्वय और पूरी अस्मिताके साथ परिलक्षित होते हैं । उनका लेखन बहु-आयामी है। सिद्धान्तके गूढ़तम रहस्योंको उन्होंने बालबोध भाषामें प्रस्तुत किया है। एक ओर 'सत्प्ररूपणा' जैसा नवनीत उनकी लेखनीसे प्रसूत हआ वहीं दूसरी ओर सागार-अनगार धर्मामृत और गोम्मटसार जैसे महान् ग्रन्थोंकी अवतारणा भी उनकी साधनासे सुबोध भाषामें उपलब्ध हुई है। उनका मौलिक लेखन और चिन्तन भी अपनी जगह विपुल और खरा है। उनकी साधनाकी वरिष्ठता नापनेका हमारे पास एक सरल आधार है कि आज, उन्हींके सामने, उनके शिष्योंके शिष्य, अपने शिष्योंका जीवन संवारने में संलग्न हैं। इस प्रकार विद्या-व्यसनी समाजकी चार-चार पीढ़ियाँ एक साथ जिसे प्रणाम करती हों, उस व्यक्तित्वके प्रति झुक जाना मस्तकका ही सौभाग्य है।
मेरे पूज्य चाचाजी
__ अमरचन्द्र जैन, सतना आज सबके परमादरणीय पंडित कैलाशचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्रीसे परिचय प्राप्त करनेका कभी सौभाग्य प्राप्त हुआ हो, ऐसा मुझे याद नहीं आता । मैट्रिककी परीक्षा देकर जिस वर्ष उत्तीर्ण हुआ, स्कूलकालेज खुलते ही पिताजीने मेरी कालेजी पढ़ाईकी तैयारी कर दी और एक दिन मेरे बनारस जानेका कार्यक्रम निर्धारित करके मुझे गाड़ीपर बैठा दिया। उस अनिश्चित अभियानका एकमात्र सम्बल था मेरे हाथ में एक पत्र, जिसे देते हुए पूज्य पिताजीने ये शब्द कहे थे कि "बनारस जाकर अपने कैलाशचन्द्र चाचाजीको यह पत्र दे देना, और जैसा वे बतायें सो करना।"
बनारसमें पहली बार मिलनेके बाद तबसे आजतक जैसा निश्छल वात्सल्य, जैसी कृपा और अनुग्रह जैसी ममता ओर अपनापन, उनसे मझे और मेरे परिवारको मिला, और मिल रहा है, वह किसी विद्वानसे समाजके किसी सदस्यको मिलना सम्भव नहीं था। गुरुसे शिष्यको भी उसकी उपलब्धि सहज नहीं थी। उसकी अजस्र धारा तो कोई पितृव्य, चाचा, दादा ही अपने बेटों, भतीजोंपर बरसा सकता है । वही अनुपम उपलब्धि मुझे उनसे हुई और इसलिए मेरे लिए वे कभी बड़े भारी विद्वानके ताम-जामसे पंडित महापुरुष नहीं दिखे । न ही कभी "गुरु" का संभ्रम पूर्ण आतंकमय व्यक्तित्व मेरी निगाहें उनमें देख पाई। यह सब महानताएँ उनमें हैं और दिनों-दिन उनके व्यक्तित्वमें इनका उत्कर्ष होगा, परन्तु मेरे लिए तो वे सदेव ही निपट अपने, सहज सीधे, चाचा जी रहे हैं। मुझे यह भी ज्ञात है कि उनकी इस अजस्र प्रेम-परसादीका मैं अकेला हकदार नहीं हूँ। मेरे कुछ और भी भागीदार है। परन्तु हममेंसे प्रत्येक हमेशा यह समझता है कि चाचा जी पर, उनके लाड़ प्रेम और स्नेह पर, उसका ही एकच्छत्र अधिकार है। सबके लिए अपनेपन की यह पूर्णानुभूति प्रदान करना सचमुच उनके विशाल व्यक्तित्वकी विलक्षण विशेषता है ।
पंडित कैलाशचन्द्रजी शास्त्री और मेरे पिताजीका उनके विद्यार्थी जीवनसे ही भाई-भाई जैसा स्नेह और सम्मानसे भरा सम्बन्ध रहा, जो आज तक निरन्तर वर्धमान होता चला जा रहा है। इस उल्लेख करते समय मैं 'सगे भाईकी तरह जानबूझकर नहीं लिख रहा हैं क्योंकि सगे भाइयों में ऐसे निश्छल
और निःस्वार्थ सम्बन्ध, कमसे कम मेरे जमानेमें देखने में नहीं आते और यदि कहीं देखने में आते भी हैं, तो इतने दीर्घकाल तक उनका चलना तो नितान्त असम्भव ही है।
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