SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 289
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इस पदमें चित्रित आत्मानुभूति जिनभक्तिकी चरम उपलब्धि है जिसे पाकर सच्चा भक्त अपने आपको गौरवान्वित मानता है। शनैः-शनैः इस भक्ति समन्वित आराधककी अनुभूतियां विषयोंसे विरक्त हीती हुई आत्मचिन्तनमें लीन हो जाती हैं और वह दौलतरामकी तरह गुनगुनाते लगता है : हम तो कबहं न निज घर आये। पर घर फिरत बहुत दिन बीते, नाम अनेक धराये । हम तो कबहुँ न निज घर आये। पर पद निज पद मानि मगन है, पर परनति लपटाये । शुद्ध बुद्ध मुखकन्द मनोहर, चेतन भाव न भाये । हम तो कबहुँ न निज घर आये। नर, पशु, देव, नरक निज जान्यो, परजय बुद्धि लहाये। अमल, अखण्ड, अतुल, अविनाशी, आतम गुन नहिं गाये । हम तो कबहुं न निज घर आये। यह बहु भूल गई हमरी फिर, कहा काज पछताये । दोल तजो अजहूँ विषयन को, सतगुरु वचन सुहाये । हम तो कबहुँ न निज घर आये । इस प्रकार दिन बीतते जाते हैं और आराध्यके प्रति बढ़ती हई भक्ति भावना नित नये उन्मेषोंसे परिपुष्ट होती है। अपने कर्तव्योंको निभाता हआ साधक उस क्षणकी स्मृति करने लगता है जब वह परम तपस्वीके रूपमें दिगम्बर बनकर आत्म सन्तुष्टिसे विभोर हो उठेगा। इस प्रकार प्रत्येक जीवके जीवनको सफल बनाने वाली भगवानकी यह भक्ति पूर्ण आनन्ददायिनी है एवं समस्त सुख प्रदात्री है। मानवको चाहिये कि वह यथासमय सजग होकर अपना आत्मकल्याण करे तथा पर्याप्त ज्ञान अजित करे । कविवर भूधरदासका यह कवित्त इस सम्बन्धमें कितना प्रेरणादायक है। जौलों देह तेरी काहू रोग सों न घेरी, जौलों जरा नहिं घेरी जासों पराधीन परिहै । जौलों जमनामा वेरी देय न दमामा, जौलों माने कान रामा बुद्धि जाइ न बिगरिहै । तौलों मित्र मेरे, निज कारज सवार ले रे, पौरुष थकेंगे फेर, पीछे कहा करिहै । अहो आग लागे जब झोपरी जरन लागी, कुआँके खुदाये तब कौन काज सरिहै । इस प्रकार निराकुलता जन्य अमर शान्तिकी प्राप्तिके लिये भगवान्की भक्ति ही उत्कृष्ट साधन है। जैन गीत साहित्यमें उसके विविध रूपोंके उपरोक्त विवरणसे भक्तिके सार्वजनिक एवं काव्यमय रूपकी पर्याप्त आकर्षक झाँकी प्राप्त होती है । - २५० - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy