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________________ है। अब धार्मिक प्रश्नोंका निर्णय शास्त्र के आधारपर न करके दलबन्दीके आधारपर किया जाता है, इससे धर्मको भी क्षति पहुँच रही है । नई पीढ़ी धर्मसे विमुख होती जाती है और उस ओर हमारा ध्यान नहीं है । अस्तु । जैनसाहित्य और उसके रचयिता आचार्यों के इतिवृत्तके सम्बन्धमें स्व० नाथू रामजी प्रेमी और स्व. पं० जुगलकिशोरजी मुख्तारकी देन अपूर्व है। ये दोनों ही संस्कृतके पठित पंडित नहीं थे। किन्तु दोनोंने ही स्वतः अभ्यास करके ऐसी सूक्ष्म दृष्टि प्राप्त की थी कि संस्कृत-प्राकृतके शास्त्रोंमेंसे मतलबकी बात पकड़ लेते थे । और मुख्तार साहबकी सूझ-बूझ और अनुसन्धान शैली तो बेजोड़ थी । प्रेमीजीने तथा मुख्तार साहबने जैनहितैषीमें अनेक लेख जैनसाहित्य और जैनाचार्यों के सम्बन्धमें लिखे जो बादको पुस्तकाकार भी प्रकाशित हए। प्रेमीजीने स्व० सेठ माणिकचन्द्रजी बम्बईकी स्मतिमें एक ग्रन्थमाला स्थापित की और उसमें अनेक अप्रकाशित ग्रन्थोंको प्रकाशित करके जैन साहित्यकी श्रीवृद्धि की। उसी ग्रन्थमालासे आचार्य समन्तभद्रका रत्नकरण्डश्रावकाचार मुख्तार साहबकी विद्वत्तापूर्ण प्रस्तावनाके साथ प्रकाशित हुआ। आचार्य समन्तभद्र और उनके कृतित्वके सम्बन्धमें तथा टीकाकार प्रभाचन्द्रके सम्बन्धमें मुख्तार साहबने अपने जीवनभरकी शोध सामग्रीके साथ प्रकाश डाला था। उसको पढ़कर मेरी रुचि जैनसाहित्य और उसके इतिहासकी ओर हई तथा मख्तार साहबके द्वारा अनेकान्त पत्रके प्रकाशनके साथ मैं उस ओर अधिकाधिक रुचि लेने लगा। जब पं० सुखलालजी और पं० बेचरदासजीके सम्पादकत्वमें सिद्धसेनके सन्मतितर्कका प्रकाशन गुजरात विद्यापीठ, अहमदाबादसे हुआ, तो प्रेमीजीकी भावना हुई कि किसी दिगम्बर ग्रन्थका सम्पादन भी इसी रूपमें होना चाहिये । तब उन्होंने मुझे और स्व० पं० महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्यको आचार्य प्रभाचन्द्रके न्यायकुमुदचन्द्रका भार सौंपा। उसी समय मैंने न्यायकुमुदचन्द्रके प्रथम भागमें प्रकाशित उसकी प्रस्तावना लिखी जिसे प्रेमीजीने पसन्द किया था। सन् ४१ में भा० दि० जैन संघने वाराणसीमें श्री जयधवल सिद्धान्त ग्रन्थके प्रकाशनके लिए जयधवला कार्यालय स्थापित किया। उसमें मेरे सिवाय पं० फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री और न्यायाचार्य पं० महेन्द्रकुमारजी कार्य करते थे। इससे पूर्व पं. फलचन्द्रजी धवल नामक सिद्धान्त ग्रन्थके सम्पादनका कार्य कर चुके थे, अतः उन्हें ऐसे कार्यका विशेष अनुभव था। प्रथम खण्डके प्रकाशनके बाद पं० महेन्द्रकुमारजी तो पृथक् हो गये किन्तु पं० फूलचन्द्रजीके साथ मैं लगा रहा। उसी समयके लगभग उज्जैनके साहित्यप्रेमी सेठ लालचन्दजीकी ओरसे जैनधर्म पर सर्वश्रेष्ठ रचनाके लिए पारितोषिककी घोषणा हुई और मैंने जैनधर्म पुस्तक लिखकर वह पारितोषिक प्राप्त किया। उसके अबतक चार संस्करण प्रकाशित हो चुके है । सन् ५३ के लगभग श्री गणेशप्रसाद वर्णी ग्रन्थमालाने जैनसाहित्यके इतिहास निर्माणकी एक ना चाल की। उसमें रहकर मैंने जैनसाहित्यके इतिहासकी पर्वपीठिका तथा जैनसाहित्यका इतिहास लिखा जो उक्त ग्रन्थमालासे प्रकाशित हुआ। एक तरहसे बनारसमें जयधवला कार्यालयको स्थापनाके साथ ही मेरे साहित्यिक जीवनका सूत्रपात होता है। श्री स्याद्वाद महाविद्यालय प्रातःकाल छह बजेसे यारह तक लगता था । अतः सन् ४१ से मेरी यह नियमित चर्या रही है कि प्रातःकालका समय पढ़ानेमें और सायंकालका समय लेखनमें अभी तक भी बीतता रहा है। डॉहीरालालजीके रवर्गवासके पश्चात भारतीय ज्ञानपीठके अन्तर्गत मूर्तिदेवी ग्रन्थमालाके सहायक सम्पादकका भार मुझे वहन करना पड़ा और डॉ० ए० एन० उपाध्येके स्वर्गवासके पश्चात् श्री जीवराज जैन ग्रन्थमाला शोलापुरके सम्पादकका भार भी मुझे ही वहन करना पड़ा है। इस तरह मेरा समस्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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