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________________ डाल (जबलपुर) क्षेत्रमें भी उनका विहार हुआ होगा । इसी प्रकार ग्वालियर के समीप दूबकुण्डसे प्राप्त एक शिलालेख सन् १०८८ का है जिसमें वहाँके जिन मंदिरकी प्रतिष्ठापना आचार्य विजयकीर्ति द्वारा हुई बताई गई है । लेखके अनुसार विजयकीर्तिके गुरु आचार्य शान्तिषेणने राजा भोजकी सभा में सम्मान प्राप्त किया था ।२ आचार्य प्रभाचन्द्रने राजा भोज और उनके उत्तराधिकारी जयसिंहके राज्य में न्यायकुमुदचन्द्र और प्रमेयकमलमार्तण्ड नामक महत्त्वपूर्ण ग्रंथोंकी रचना की । आचार्य नयनरिन्दने राजा भोजक राज्यकालमें धारा नगरमें सन् १०४४ में अपभ्रंश काव्य सुदर्शनचरितकी रचना की । इनकी दूसरी रचना सकलविधिविधान काव्य भी भोजके ही राज्यमें पूर्ण हुई थी । सन् १०१३ में श्रीचन्द्र आचार्यने धारामें आचार्य सागरसेनसे अध्ययन कर पुराणसारकी रचना की तथा यहीं दस वर्ष बाद उत्तरपुराण टिप्पणकी रचना की। इनका पद्मपुराण टिप्पण भी भोजके ही राज्यकालमें सन् १०३० में लिखा गया । ४ विदिशा के समीप बडोहके जिन मन्दिरके द्वार पर प्राप्त सन् १०५७ के लेखमें आचार्य उभयचन्द्र का तथा सन् १०७८ के लेखमें मंत्रवादी आचार्य देवचन्द्रका नाम उल्लिखित है । 4 इसी प्रकार श्रवणवेलगोल के सन् १११५ के एक शिलालेखसे गोलाचार्यका परिचय मिलता है। ये चंदेल वंशके राजकुमार तथा गोल्ल प्रदेशके स्वामी थे तथा किसी कारणसे विरक्त होकर मुनि हुये थे । इनका मूलस्थान बुन्देलखण्ड का उत्तरी क्षेत्र प्रतीत होता है । लेखमें इनके प्रशिष्यके प्रशिष्य मेघचन्द्र के समाधिमरणका वर्णन है । जबलपुर से ४० मील दूर बहुरीवन्दमें एक भव्य शान्तिनाथ मूर्तिकी स्थापना आचार्य सुभद्रने सन् ११३० में लगभग राजा गयाकर्णके राज्यकालमें की थी, ऐसा उसके पादपीठलेखसे ज्ञात होता है । ७ बारहवींसे चौदहवीं शताब्दी - बड़वानी के समीप चूलिगिरि पर्वत पर प्राप्त सन् १९६६ के दो लेखोंमें आचार्य रामचन्द्रका वर्णन है । इन्होंने वहाँ इन्द्रजित् केवलीका मन्दिर बनवाया था प्रबन्धकोश में आचार्य विशालकीर्ति और उनके अनेक वादोंमें विजय प्राप्त करने वाले शिष्य मदनकीर्तिके उज्जयिनीमें विहारका वर्णन प्राप्त होता है । मदनकीर्तिकी शासनचतुस्त्रिशिकामें मालवाके तीन स्थान-धाराके नवखंड पार्श्वनाथ, मंगलपुर के अभिनन्दन और बृहत्पुर ( बड़वानी) के बड़े देव ( बावनगजा ) का वर्णन भी है । खजुराहोंके दो मूर्तिलेखोंमें, जिनका समय बारहवीं सदीमें अनुमानित है, भट्टारक आम्रनन्दिका नाम उल्लिखित है । यहींके एक अन्य मूर्तिलेख में दुर्लभ मन्दिर - रविचन्द्र - सर्वनन्दिकी आचार्य परम्परा भी उल्लिखित । यहीं के सन् १९५८ के एक मूर्तिलेखमें आचार्य राजनन्दिके शिष्य भानुकीर्तिका नाम भी उल्लिखित है ।' विशालकीर्ति और मदनकीर्तिका वर्णन धाराके समीपवर्ती नलकच्छापुर ( नालछा ) के महापण्डित १. जैनशिलालेखसंग्रह, भाग २, पृ० ३४५ २. जैनसाहित्य और इतिहास, पृ० २९० २८७ ३. जैनग्रन्थप्रशस्तिसंग्रह, भा० २, पृ० ३ ४. जैनशिलालेख संग्रह, भा० १ १४२ ५. जैनशिलालेख संग्रह, भा० ४, पृ० १४७ ६. जैनशिलालेख संग्रह, भा० ३, पृ० १४३ ७. प्रबन्धकोश, पृ० १३१ ८. जैन साहित्य और इतिहास, पृ० ३४७ ९. जैनशिलालेखसंग्रह, भाग ४, पृ० ४०, ४७ Jain Education International - २९० For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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