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सैद्धान्तिक अध्ययनकी तीक्ष्णता, विशदता तथा गम्भीरता गहन शोधके विषय हैं । फिर भी, ऐसा अवश्य प्रतीत होता है कि बीसवीं सदीके पूर्वार्ध और उत्तरार्धके विद्वद्-वर्गके एक-दूसरेके पूरक बननेकी प्रक्रिया उतनी सरल नहीं दिखाई पड़ती। अस्तु, अपने ढंगसे ही सही, यह पीढ़ी भी पुरानी पीढ़ीके कार्यको आगे बढ़ाती हुई जैन संस्कृति एवं समाजको दिशादान कर रही है।
श्वेताम्बरोंमें पंडित-परम्परा इतनी विकसित नहीं पाई जाती। इस परम्परामें धर्म प्रचार व जागरणका कार्य आचार्यों एवं सूरियोंने किया है। हाँ, इस सदीमें पं० सुखलाल संघवी, पं० बेचरदास दोशी, पं० दलसुख भाई मालवणिया तथा अगरचन्द नाहटाके समान विद्वानोंने अपना बहुमूल्य योगदान किया है।
विशिष्ट मानवों और अतिमानवोंकी स्तुति, नाराशंसी, गाथा और प्रशस्तियोंके उल्लेख वेद-उपनिषदों तकमें पाये जाते हैं। दानवीर, यद्धवीर तथा नरेशोंकी प्रशस्तियाँ अनेक काव्योंके रूपमें हमें सुज्ञात हैं। इसी प्रकार, साहित्य, संस्कृति और समाजके उन्नायक विद्यावीरोंकी प्रशस्ति भी स्वाभाविक है। यह कहा जाता है कि आचार्य पुष्पदन्त और भूतबलिकी प्रशस्ति-स्तुति देवताओं तकने की थी। वर्तमान अभिनन्दन भी इसी प्रकारकी प्रशस्तिके आधुनिक संस्करण हैं। इनका उद्देश्य एवं रूप भी समय-समय पर बदलता रहा है। कभी यह मात्र व्यक्ति-प्रमुख था, पुष्पमाल तक सीमित था, फिर 'पत्रं पुष्पम्' और मानपत्रोंमें परिणत हुआ और वर्तमानमें यह अभिनन्दनीयके माध्यमसे एक स्थायी साहित्य-निर्माणको प्रक्रियाके रूपमें विकसित हुआ है जो विद्वानों, शोधकों तथा सुधी पाठकोंके लिए ज्ञानवर्धक एवं विचार-प्रेरक सन्दर्भ साहित्यका काम करता है । ऐसे साहित्यका निष्काम उद्देश्य तत्त्वज्ञान और साधनाकी ओर उन्मुख होना है।
प्राच्यविद्याके क्षेत्रमें डॉ० भांडारकर और प्रो० विन्टरनित्स् आदि मनीषियोंका सम्मान करनेका यही उपाय उचित समझा गया कि उनके जीवनकी आधारभूत प्रवृत्तियों-शोधादि पर आधारित कृतियाँ ही उन्हें समर्पित की जाएँ। इससे प्रेरित होकर ही, सम्भवतः पिछले चार दशकोंमें अनेक दिगम्बर और श्वेताम्बर विद्वानों और साधुजनोंके अभिनन्दन इसी रूपमें आयोजित किये गये । इस प्रकारके अनेक अभिनन्दन अथवा स्मृति-ग्रन्थोंके माध्यमसे जो साहित्य सामने आया है, वह स्फुट तो अवश्य है, परन्तु उससे धर्म, दर्शन, पुरातत्त्व, साहित्य, इतिहास तथा विज्ञानसे सम्बन्धित जैन विद्याओंके अनेक ऐसे पक्ष प्रकाश में आये हैं जिनसे महावीरकी पराम्पराकी महत्ता, प्रभावकता एवं प्रसारमें पर्याप्त योगदान मिला है। ऐसे प्रयत्नोंकी निरन्तरता बीसवीं सदीकी एक अनिवार्य एवं वेगवती भावना बनती जा रही है।
आदरणीय पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीने अपने गहन अध्ययन, लेखन, सम्पादन, प्रवचन, मार्गदर्शन, वक्तृत्वकला, अध्यापन और शोधकार्य, दानवृत्ति एवं सहयोग-भावके कारण जैन समाज और अखिल भारतीय विद्वद् वर्गमें जो कीर्तिमानी स्थान प्राप्त किया है, वह भी समादरणीयताकी कोटिमें स्वतः समाहित होता है । इस आधार पर ही अनेक व्यक्तियों एवं संस्थाओंके सहयोगसे वर्तमान समितिने उनके अभिनन्दन का निश्चय किया। समितिको अथक प्रयत्नसे लगभग शताधिक सहायकों, शताधिक ही लेखकों एवं विद्वानोंका भरपूर सहयोग मिला। इसकी प्रत्याशामें ही हमने अभिनन्दन ग्रन्थको सप्त-खंडी रूपरेखा तैयार की। इसके अनुरूप ही हमारे निवेदन पर देश और विदेशके ख्यातिप्राप्त विद्वानोंने हमें इतनी बहुमूल्य सामग्री प्रेषित की कि इसका तृतीयांश तो हम इच्छा रहते हुए भी, अपनी पृष्ठसीमा तथा अर्थसीमाके कारण, इस ग्रन्थमें समाहित न कर सके। इसके अतिरिक अनेक लेखोंको हमें सम्पादित कर संक्षिप्त भी करना पड़ा है। इन लेखोंका चयन लेखकके आधार पर नहीं, अपितु विषय-वस्तुकी मौलिकता, नवीनता, विविधता तथा रोचकताके आधारपर किया गया है। ग्रन्थकी व्यापक उपयोगिताको ध्यानमें रखकर हमने इसके महत्त्वपूर्ण अंग्रेजी लेखोंका हिन्दी-सार देनेकी नई परम्परा अपनाई है। यह भी इस ग्रन्थकी अभिनवता होगी। इस कार्यमें हमारे परामर्शदाताओं एवं सम्पादक-मण्डलके सभी सदस्योंने पर्याप्त मार्गदर्शन
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