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वे छिप छिपकर रात्रिमें पढ़ना आरम्भ करते थे। अतएव वह भी रात्रिमें १२ बजे उठकर पढ़ने बैठ जाते थे । बाबा भागीरथ वर्णों, जो उस समय यहां के संरक्षक थे तथा पं० उमरावसिंहके कहनेपर कि इससे स्वास्थ्यपर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा, पण्डितजीने इतनी रातसे उठकर पढ़ना बन्द किया । पण्डितजीके विचारमें विद्यार्थी अब उतनी लगनसे शिक्षा ग्रहण नहीं करते। इसी सन्दर्भमें पण्डितजीने एक रोचक बात और बतलाई कि उस समय पढ़ाई के लिये जितना तेल मिलता था, वह रात्रिभरकी पढ़ाई के लिए पर्याप्त नहीं होता था, अतएव विद्यार्थी एक-दूसरेका तेल चुरा लिया करते थे। विद्यार्थियोंकी यह अजब चोरी थी।
उस समय शिक्षा देनेमें स्वार्थ एवं भ्रष्टाचार नहीं था । त्याग एवं निःस्वार्थ सेवाका ही वातावरण था । पं० गोपालदासजी विद्यालयसे बिना कुछ लिये ही वहाँ शिक्षा देते थे । इस सद्वृत्तिका पण्डितजी पर पूर्ण प्रभाव पड़ा है और इसी कारण उनको धनका मोह कभी नहीं हुआ । अपने सम्पूर्ण अध्यापनकाल में आप केवल आवश्यक वेतन लेकर ही स्वाद्वाद महाविद्यालयको विकसित करने एवं योग्यसे योग्य छात्र निर्माण करनेमें जुटे रहे। पण्डितजी जैसे स्पातिप्राप्त एवं प्रखर विद्वान्के लिये किसी धनाढय संस्थामें अच्छेसे अच्छा वेतन पाना कोई कठिन कार्य नहीं था ।
व्यक्तित्व और सार्वजनिकता - पर्युषण पर्व पर नहटौर में पण्डितजीके कभी-कभी शास्त्र प्रवचन करने पर वहाँकी जैन समाज में विशेष उल्लास रहता था । कठिन प्रसंगोंका विवेचन होने पर बहुधा मैं बाल सुलभ जिज्ञासा समाधान हेतु पण्डितजीसे लम्बे प्रश्न किया करता था और पण्डितजी थे कि गद्गद मनसे कठिन विषयोंको सरल रूपमें मेरेमें हृदयंगम करानेका प्रयत्न करते थे। नवयुवक वर्गकी धर्ममें आस्था ऐसे विद्वानोंके सहयोगसे ही पनप सकती है ।
पण्डितजीका सर्वप्रथम सार्वजनिक भाषण सन् १९३४ में धर्मपुराकी जैन सभामें हुआ। उसी समय आपको सर्वप्रथम मानपत्र भी भेंट किया गया था । इस प्रकार दिल्लीमें ही आपका सार्वजनिक जीवन आरम्भ हुआ । तबसे आपका सार्वजनिक जीवन अनवरत रूपसे अधिकसे अधिक गौरवपूर्ण बनता जा रहा है । स्याद्वाद महाविद्यालयके तो पण्डितजी प्राण ही बन गये हैं । देशमें अधिकांश जैन विद्वान इसी विद्यालयसे उत्पन्न हुए। आपके सरल स्वभाव एवं सादे जीवनकी विद्यालयके विद्यार्थियों पर गहरी छाप रही है। लगभग ६०० से अधिक विद्यार्थी आपसे शिक्षा प्राप्तकर देशमें अनेक उत्तरदायित्वपूर्ण स्थानों पर कार्य कर रहे हैं । अनेक सुप्रसिद्ध जैन विद्वान् पण्डितजीके शिष्य रहे हैं। अभी तक भी उनकी पण्डितजीमें गहरी श्रद्धा है ।
विद्यार्थियोंमें गुरुजनोंके प्रति आदरभाव आप उनके उचित आवश्यक मानते हैं। उसी परम्परामें अभी तक भी अपने गुरुओं में चन्द्रजी न्यायाचार्य एवं पण्डित देवकीनन्दनजीके प्रति आपकी अपार
श्रद्धा है।
पण्डितजीने एक पूर्व घटना बहुत विनोदपूर्वक सुनाई । सन् १९३४ में आप खुरजामें एक प्राचीन शास्त्र देखना चाहते थे। उसकी व्यवस्थासे सम्बन्धित एक महानुभाव यह नहीं चाहते थे कि उस शास्त्रको कोई देखे । पण्डितजीने पत्र लिखा तो उत्तर आया कि मैं उस समय खाली नहीं रहुँगा । इस कारण अनेका कष्ट न करें। फिर भी पण्डितजी खुरजा गये । उनको देखते ही महानुभावने कहा कि मैंने तो पहलेही अपको न आनेके लिये पत्र लिख दिया था। रात्रि में पण्डितजीने मन्दिरमें शास्त्र प्रवचन किया। सारे श्रोता उससे प्रभावित हुये और वह सज्जन भी । फिर उन्होंने उमंगसे उस शास्त्रको पण्डितजीको दिखाया । उस समय रूढ़ियाँ इतनी कठिन थीं कि योग्य विद्वनोंको भी प्राचीन शास्त्रोंको प्रकाश में लानेके लिये कठिनाईका सामना करना पड़ता था ।
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अध्ययन एवं जीवनके उत्कर्षके लिये वंशीधरजी न्यायालंकार
पं० माणिक
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