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प्राप्त होता है । इसको संकेत न ] के द्वारा प्रदर्शित करते हैं । दो के तृतीय वर्गित सम्वर्गितको धवलामें इस प्रकार लिखा है ।'
रा
वर्गमूलके लिये चिह्न
तिलोयपत्ति और अर्थ संदृष्टि आदि में वर्गमूलके लिये 'मू०' का प्रयोग किया गया है । तिलोयपण्णत्ति के निम्नलिखित अवतरण में 'मू० ' संकेत वर्गमूलके लिये दृष्टिगोचर होता है :
२ मू० ।
४/६५५३६
इसका आशय
इसी प्रकार,
-
का आशय
(२५६) २५६
= ५८६४ रिण रा - ४५६५६। ५
| १।३ मू०
/५
पं० टोडरमलकी 'अर्थसंदृष्टि' में के मू प्रथम वर्गमूल और के मू२ वर्गमूलके वर्गमूलके लिये प्रयोग किया गया है ।
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संकेत 'मू०' का मूल अर्थात् वर्गमूलका प्रथम अक्षर है । इस चिह्नको उस संख्याके अन्तमें लिखा जाता था, जिसका वर्गमूल निकालना होता था । 'वक्षाली हस्तलिपिमें 'मू० का प्रयोग मिलता है जो निम्न उदाहरण से स्पष्ट है :
११ यु०
१
४।६५५३६
√ ११ + ५ = ४ है ।
११+७ १ १
५ मू०
१
१ |
मू० २
४
१
√ ११ - ७ = २ है ।
भास्कराचार्य द्वितीय (११५० ई०) ने अपने बीजगणितमें वर्गमूलके लिये 'क' अक्षरका प्रयोग किया है । यह संकेत 'क' शब्द करणीका प्रथम अक्षर है । इस संकेत 'क' को उस संख्याके पहले लिखा जाता था जिसका वर्गमूल निकालना होता था । निम्न उदाहरणसे इसका आशय पूर्णतः स्पष्ट है ।
प४
क ९ क ४२० क ७५ क का आशय ९ + ४५० +V७५ ५४ है ।
१. धवला, पुस्तक ३ अमरावती, १९४१, परिशिष्ट, पृ० ३५ । २. तिलोयपण्णत्ति भाग २, पंचम अधिकार, पृ० ६०१ । ३. पं० टोडरमलकी अर्थसंदृष्टि, पृ० ५ ।
४. भास्कर द्वितीयका बीजगणित, पृ० १५ ।
५२
=
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