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यहाँ दिये जा रहे हैं । अठारहवीं शताब्दीके कविवर धसिंहने बहुत ही सुन्दर दृष्टान्तों द्वारा 'धरतीकी घणियाप' याने मालकीपन कैसा, इसको सुन्दर ढंगमें प्रचारित किया है : धरतीकी धणियाप किसी ? भोगती किते भू किता, भोगवसी, मांहरी मांहरी करइ मरे ।
एही तजि पातलां उपरि, ककर मिलि केई ध्रुवै ॥१॥ धप ही धरणी केतुइ धुसि धरि, अपणाइत केई धूवै ।
घोवी तणी शिला परि धोवी हूंपति, हूं-पति करै हुवै ।।२।। इण हल किया किता पति आग, परतिख किता किता पर पूठ ।
वसूधा प्रगट दीसती वेश्या झझे भूप भुजंगसू झठ ॥३॥ पातल सिला वेश्या पृथ्वी, इण च्यारां री रीति इसी ।
ममता करै मरै सो मूरख कह, चर्मसी धणियाप किसी ॥४।।
एक दूसरे राजस्थानी कविने भी कहा है कि जिस भूमिके लिए तुम इस धन-जनका बेहद संहार करनेपर तुले हुए हो सोचो तो सही कि इस भूमिको कौन साथ लेकर गया है ? बड़े-बड़े राजाओंने इसे अपनामानकर महाभारत जैसे युद्ध किए, पर अन्तमें उन्हें भी जाना पड़ा, पर भूमि तो यहीं की यहीं पड़ी रही, कोई भी साथ न ले जा सका :
कहो भोम कुण ले गया ? एण भोम उपरे राम रावण हिण अडीया, एण भोम उपरे बहु चक्र वै रण पडिया । एण भोम उपरे गये वाणंवली बारह, एण भोम उपरे खपे खोहण अठारेह । सौला सोवत सौ सूरिमा, दरजोधन संग्रहि दिया । एतला राजा होई गया, कहो भोम कूण ले गया ॥१॥
इसी तरह समस्त पौद्गलिक पदार्थों को, यथावत शरीर तककी ममताको हटानेके लिए, उन्होंने उनकी विनश्वरता व उनके संग्रह व ममत्व द्वारा होनेवाली खराबियोंके विरुद्ध खूब साहित्य लिखा व प्रचार किया और असंग्रह वृत्तिकी ओर बढ़नेके लिए प्रेरणादायक संदेश दिया। जरूरत उसके आचरण की ही है। विश्वकी अशान्तिका मूल कारण यह संग्रहवत्ति ही है। इसीके कारण हिंसा, असत्य, चोरी, व्यभिचार आदि सारे दुर्गुण, वैर-विरोध एवं युद्ध पनपते हैं। इसीलिए असंग्रहवृत्ति की ओर बढ़ना ही परम शान्तिका मार्ग है। संग्रह, परिग्रह व भोग ही भवभ्रमण हेतु हैं और असंग्रह, असंग, अपरिग्रह व आसक्ति त्याग ही शान्ति एवं कल्याणदायक है । सुधीजन इसपर स्वयं सोचें, समझें और श्रेयकी ओर बढ़ें।
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