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________________ जैन ग्रन्थों एवं तत्कालीन अन्य साक्ष्योंके आधार पर यह स्पष्ट है कि अंग (भागलपुर), मगध, बज्जि, लिच्छवि क्षेत्र (जिसमें विदेह भी सम्मिलित था) तथा काशी-कोशल साम्राज्य महावीर के कार्य-क्षेत्र थे जहाँ निर्ग्रन्थ अनुयायी भगवानके उपदेशोंके प्रचार-प्रसारमें लगे थे। बौद्ध-ग्रन्थोंसे ज्ञात होता है कि राजगीर, नालन्दा, वैशाली, पावापुरी तथा सावत्थी (श्रावस्ती) में ही महावीर तथा उनके अनुयायियोंकी धार्मिक गतिविधि अधिकांशतः सीमित थी और लिच्छवियों तथा विदेह-निवासियोंका एक बहत बड़ा समूह उनका कट्टर अनुयायी बन चुका था। उनके कुछ समर्थकोंका तो तत्कालीन समाजमें बहुत महत्वपूर्ण स्थान था जैसे लिच्छवि सेनाध्यक्ष सिह अथवा सिंह, सच्चक आदिका । तात्पर्य यह कि अपने युगमें वैशाली तथा विदेहमें समाजके सभी वर्गों-छोटे अथवा बड़े-पर उनका अद्भुत प्रभाव था जिसके फलस्वरूप जैन 'आर्य देशों में मिथिला अथवा विदेहकी भी गणना होती थी। इस प्रकार भारतीय संस्कृतिके उ वैशाली और विदेहको धर्म तथा दर्शनके क्षेत्रमें पर्याप्त ख्याति प्राप्त हो चुकी थी और वहाँके धर्मोपदेशक भगवान् मनावीर द्वारा निर्देशित धर्म-मार्ग पर चलनेके फलस्वरूप बौद्धधर्मके अभ्युदयके पूर्व ही समस्त देशमें अपना एक विशेष स्थान बना चुके थे। अधिकांश विद्वानोंका ऐसा मत है कि बौद्धधर्मकी भाँति जैन मत भी ब्राह्मण धर्मके विरुद्ध प्रतिक्रिया एवं असंतोषका परिणाम था, किन्तु तत्कालीन साक्ष्योंका अनुशीलन करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि सामान्यत: ब्राह्मण दार्शनिक जैनियों अथवा जैनमतसे उतनी ईर्ष्या नहीं रखते थे जितनी बौद्धोंसे । यह सही है कि जैनधर्म तथा दर्शनका जो वर्तमान स्वरूप है उसके स्रष्टा एवं प्रवर्तक भगवान् महावीर थे, किन्तु यह मत उनके अभ्युदयके पूर्व भी मौजूद था और उनसे पहले २३ तीर्थकर हो चुके थे। ब्राह्मण दार्शनिक इन तीर्थंकरोंके उपदेशोंसे परिचित थे और बहधा आपसमें उन लोगोंमें विचारोंका आदान-प्रदान भी होता रहता था। इसलिये, शब्दके वास्तविक अर्थमें यह नहीं कहा जा सकता कि जैनमत ब्राह्मण धर्मके विरुद्ध एक विद्रोहके रूपमें पुष्पित एवं पल्लवित हुआ। जैनमतका बीजारोपण तो बहुत पहले ही हो चुका था, किन्तु महावीरके अभ्युदयके बाद इसका पर्याप्त विकास हआ। यह सही है कि ब्राह्मण दार्शनिकोंने जैन सिद्धान्तोंकी आलोचना की किन्तु उस उग्रता एवं कटतासे नहीं जो उनके द्वारा की गयी बौद्धमतकी आलोचनामें लक्षित होती है। साथ ही महावीरने भी वेदोंकी सत्ताकी आलोचना अवश्य की थी किन्तु उस रूपमें नहीं जिस तरह बुद्धने की थी। तात्पर्य यह है कि बौद्धोंने धर्मके नाम पर जो आक्रामक नीति अपनायी थी, जैनी उससे अलग रहे । वास्तविकता तो यह है कि 'त्रिवर्ण'-ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वेश्यको मान्यता प्रदान कर महावीरने अपरोक्ष रूपसे समाजमें परम्परागत जाति-व्यवस्थाको स्वीकार कर ब्राह्मण दार्शनिकोंकी वाग्धाराको कुंठित कर दिया था। महावीर एवं बुद्धके समय समस्त उत्तर भारतमें एक ही तरहकी आथिक-धार्मिक स्थिति थी। जाति-व्यवस्था एवं तज्जन्य कुरीतियोंसे तत्कालीन समाजग्रस्त था। परीहितवाद समाजके ढाँचेको खोखला किये जा रहा था। अपनेको 'भदेव' कहने वाले ब्राह्मण परोहित धर्मके नाम पर समाजके निर्धन वर्गको तबाह किये हये थे। धर्मके क्षेत्रमें कुरीतियाँ इस हद तक बढ गयी थीं कि जनक तथा याज्ञवल्क्य-जैसे ऋषियोंको भी इसके विरुद्ध आवाज उठानी पड़ी जो उपनिषद ग्रन्थोंसे स्पष्ट है। समाजके अधिकांश वर्ग इससे त्राण पानेके लिये किसी नये मार्गकी प्रतीक्षा कर रहे थे और ठीक ऐसे ही समय मानवताकी दो १. विनयपिटक । २. मज्झिमनिकाय । - २८२ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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