________________
लोहानीपुर से प्राप्त ओपयुक्त प्रस्तर प्रतिमा जो कि यक्ष परम्परासे वेष्टित है का निर्माणकाल लगभग ई०पू० तीसरी शती में हुआ ।
मूर्तियों के अतिरिक्त ई० पू० तथा ईस्वी पश्चात् जैन-धर्मावलम्बी मांगलिक चिह्नोंको पूजते थे । उनका ही अंकन आयागपट्टोंमें मिलता है । प्राक् कुषाण एवं कुषाण कालके आयागपट्ट मथुरा ( शौरीपुर ) से प्राप्त हुये हैं ।
सम्भवतः गहन वनोंमें प्रतिमाओंका निर्माण आसान नहीं था । जिन श्रवण भ्रमणशील होते थे तथा अपना निवास प्रायः गिरि कन्दराओं ही में रखते थे । ऐसी कन्दराओंका प्रमाण जो कि बौद्धधर्म से सम्बन्धित है, सीहोर जिलेकी बुधनी तहसील में पानगुरारिया नामक स्थानमें बहुमात्रामें उपलब्ध । स्तरीय शिलाखण्डों में कन्दरायें प्राकृतिक रूपसे ही निर्मित हो जाती थीं तथा आग्नेय शिलाओंमें निर्माण तक्षण विधिसे ही किया जाता था । लेखकको पुरातत्वीय सर्वेक्षणके फलस्वरूप चन्देरी, जो कि आज भी जैनधर्मावलम्बियोंका अतिशय क्षेत्र है, में प्राप्त हुए हैं । इस महत्त्वपूर्ण खोजसे जैनधर्मका प्रवाह ईस्वी शती पूर्व कालका निर्धारित किया जा सकता है । लगभग एक सहस्र वर्ष पश्चात् इस तीर्थस्थलका पुनः पुनरुद्धार हुआ जिसके फलस्वरूप जन प्रतिमायें एवं देवालयोंका निर्माण देवगढ़ ( पथराड़ी देवगढ़), बूढ़ी चन्देरी, बौन तथा शिवपुरी क्षेत्रमें बहुसंख्यामें हुआ । पन्द्रहवी - सोलहवीं शतीमें ग्वालियर दुर्ग में मरीमाताके समान चन्देरीमें भी विशालकाय प्रतिमाओंका निर्माण तोमर शासकोंके कालमें हुआ । मुस्लिम शासनकाल में जिनालयों का निर्माण विशाल चट्टानोंको काटकर किया गया जिसे खण्डारजी कहा जाता है । इस काल में मालव सुलतान दिलावरखाँ गोरी था ।
प्राचीन काल में चन्देरी मथुरा तथा विदिशासे जुड़ा था। यह महत्त्वपूर्ण स्थल वनोंसे आच्छादित किले एवं खण्डारजीके शीर्ष भागमें स्थित पठघटियाके नामसे जाना जाता है । सम्पूर्ण शिलाको सात मीटर चौड़ा तथा तीन मीटर गहरा उकेरा गया है । इसका घाटी मार्ग प्रस्तर खण्डोंसे भरा है । सम्भव है कि इन खण्डोंको हटाये जानेके उपरान्त सोपान मार्ग मिल सके । पश्चिमामुखी दीवाल पर दो लेख उत्कीर्ण हैं एक विक्रम संवत १५७१ का तथा दूसरा लेख ब्राह्मी लिपिमें है । अक्षर रचनाके अनुसार यह लेख लगभग दूसरी पहली शती ई० पू० का है ।
उपर्युक्त लेखके साथ निम्न मांगलिक चिह्न उत्कीर्ण हैं
(१) नन्दीपद (नंद्यावर्त), (२) स्वास्तिक, (३) विहग, (४) मीन - मिथुन, (५) पद्म, (६) शंख, (७) त्रिरत्न, (८) वज्र, (९) श्रीवत्स, (१०) ध्वज, (११) तालवृत्त ( व्यजन) अथवा दर्पण ।
- मिथुनको एक से अधिक बार दर्शाया गया है। उपर्युक्त प्रतीकोंमें से कईकी कल्पना अष्ट मांगलिक चिह्नोंसे की गयी है ।
तेसि सां तोरणाण उप्पि अठठट्ठ मंगलगा परुणता, तं जहा
सोत्थिय, सिरिवच्छ, नन्दियावर्त वद्धमाणग, भद्दासण, मच्छ, दप्पण, जाव, पडिरुवा । उपर्युक्त शुभ प्रतीकोंके अतिरिक्त पठार के ऊपर वृत्ताकार द्रोणियाँ बनी हुयी हैं जिनमें मार्जन हेतु संभवत: जल संगृहीत किया जाता था ।
मानव संस्कृति के अभ्युदयसे ही पूजनके भावरूपको महत्त्व दिया जाता था न कि हव्य भावको । निर्गुण उपासनाके साथ ही सगुण उपासनाका उद्भव प्रारम्भ हो गया था । जब प्रतीक सर्वसाधारणको बोध करनेमें असफल हो जाते हैं तभी प्रतीकात्मक वस्तु कालान्तर में दो रूपोंमें परिणत हो जाती है एक अतदाकार तथा द्वितीय तदाकार |
Jain Education International
- ३२० -
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org