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________________ सर्वोत्तम उदाहरण हैं। यहाँ पर ३२ देवालय और लगभग २०० शिलालेख मिले हैं । मूर्तियाँ हजारोंकी संख्यामें मौजूद हैं। यहाँकी सरस्वती, चक्रेश्वरी, ज्वालामालिनी और पद्मावतीकी मूर्तियोंका सौंदर्य देखने योग्य है । देवगढ़ में प्राप्त सुन्दर २४ यक्षियोंकी-सी मूर्तियाँ उत्तरभारतमें और कहीं नहीं मिलती हैं । यहाँ पर सुषमा-सुषमा कालीन कल्पवृक्ष और युगलियोंके चित्र भी मिले हैं । प्राप्त २०० शिलालेखोंमें विक्रम संवत् ९१९ का लेख ही सर्व प्राचीन है। अनुमानतः इस क्षेत्रकी स्थिति एकहजार वर्ष तक बहुत अच्छी रही। देवालय नं०१२ में ज्ञानशिलाके नामसे जो एक लेख प्राप्त है, सूना है, कि उसमें अठारह लिपियोंका नमूना मौजूद है। ग्वालियरके निकटवर्ती चन्देरी, जयपुरके निकटवर्ती सांगानेर आदि स्थानोंके देवालय भी कलाकी दृष्टिसे बहुत सुन्दर हैं । मथुरा (कंकालीटीला) यहाँका जैन स्तूप दूसरी शतीका है । मथुराकी कुषाणकालीन कलाओंमें यह जैन स्तूप सर्वश्रेष्ठ है । इसे देवनिर्मित कहा गया है । “तीर्थकल्प" में इसका विशेष वर्णन मिलता है। इसमें लिखा है कि सुपार्श्वनाथ की स्मृतिमें स्तूपको कुबेरने सुवर्णसे बनाया है। "तीर्थकल्प" के कथनानुसार ८वीं शती तक यह स्तूप मौजूद था । बौद्ध स्तूपोंसे यह प्राचीन है । १७वीं (सत्रहवीं) शती तक मथुरामें जैनकला विकास पर थी। मथुरामें आयगपट, तोरणद्वार, वेदिकास्तंभ, द्वारस्तंभ आदि बहुत-सी चीजें मिलती हैं। इनमें खासकर आयगपट विशेष उल्लेखनीय है । आयगपटोंमें अष्टमंगल, दिक्कनिकाएँ आदि बहुत ही सुन्दर ढंगसे चित्रित हैं। शंगकालसे लेकर गुप्तकाल तक इतनी विपुल जैन सामग्री अन्यत्र उपलब्ध नहीं हुई है। इस सामग्रीसे तत्कालीन जनजीवन, आमोद-प्रमोद, वेषभूषण आदि सामाजिक बातोंका भी ज्ञान होता है। कुषाणकालीन मूर्तियोंके नीचे अधिकतर ब्राह्मी लिपिके लेख हैं और इनकी भाषा संस्कृत तथा प्राकृत मिश्र है। यहाँकी मूर्तियोंमें सरस्वती, आर्यवती और नैगमेशकी मूर्तियाँ विशेष उल्लेखनीय हैं। मथुराके वेदिकास्तम्भोंके ऊपर जो चित्र अंकित हैं, उनमें तत्कालीन आनन्दमय लोकजीवनके सुन्दर उदाहरण मिलते हैं । इन चित्रोंमें विविध आकर्षण भंगिमाओंमें खड़ी हुई महिलाओंके चित्र ही अधिक हैं। एक फूल तोड़ रही, दूसरी स्नान कर रही है, तीसरी अपनी गीलीकेशराशिको सुखा रही है, चौथी अपने कपोलमें लोध्रचूर्ण लगा रही है, पाँचवीं वृक्षकी छायामें बैठकर वीणा बजा रही है, छठी बंसुरी बजा रही है, और सातवीं नृत्य कर रही है । वस्तुतः ये वेदिकास्तम्भ कलात्मक शृंगारोंसे मुक्त माधुर्यके जीवित उदाहरण हैं । प्रथम सतीसे पाँचवी सती तकका काल मथुराकी मूर्ति कलाका सुवर्ण युग ही है। प्राकृतिक सौंदर्य सम्पन्त पर्वत, नदी, जलपात, कमल, अशोक, कदम्ब, बकुल, नागकेसर, चम्पक आदि लतावृक्ष एवं सघन अरण्योंमें स्वच्छन्द विहार करनेवाले पशु पक्षी-इनके द्वारा मथुराके शिल्पियोंने प्राकृतिक उपकरणोंके साथ अमूल्य मानव सौंन्दर्यको सामंजस्य रूपसे प्रपंचित किया है। सौंदर्यकी अनिन्दित साधन रूप नारीको चित्रित करना प्राचीन जैनकलाका एक वैशिष्ट्य है। धर्म की रक्षा और प्रसारमें प्रत्येक कालमें महिलाओंने क्रियात्मक भाग लिया है। इस कार्य में महिलाएँ पुरुषोंसे पीछे नहीं थीं। मथुरामें महिलाओंके द्वारा निर्मापित चिरस्मरणीय हजारों कलाकृतियाँ प्राप्त हई हैं । लोकद्वयमें कल्याणापेक्षणीय इन महिलाओंमें मणिकार, लोहकार आदि निम्न जातिकी भी मौजूद थीं। यहाँका एक सुन्दर आयगपट एक वेश्याकी पुत्री लवणशोभिकाके द्वारा बनवाया गया था । यहाँपर नर्तकी आदि सभी वर्गोंकी महिलाएँ धर्मकार्यमें भाग लेती रहीं। अचला, कुमारमित्रा, गृहत्री, गृहरक्षिता, शिवमित्रा, शिवयशा आदि यहाँपर दानदात्री महिलाओंके सैकड़ों नाम मिलते हैं। खासकर आर्यिकाएँ इन महिलाओंको प्रेरणा करती रहीं । गुप्त, चालुक्य, राष्ट्रकूट और पांड्य आदि अनेक राजवंशोंने - ३४२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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