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दर्शनके अच्छे विद्वान हैं। ये जर्मनीके डा० शूबिंगके शिष्य रहे हैं। इनका एक महत्वपूर्ण जर्मन निबन्ध एच० डब्लू, हॉसिंग द्वारा सम्पादित पुस्तकके चतुर्थ भागमें प्रकाशित हुआ है । इनके सम्पादकत्वमें शूबिंगकी णाहाधम्मकहाओ (जर्मन) प्रकाशित हुई है। यू ट्रेक्टके डा० गोण्डा द्वारा सम्पादित एक ग्रन्थमें जैन दर्शन पर इनका एक महत्वपूर्ण शोध-पत्र भी प्रकाशित हुआ है।
फिनलैण्डके डा० अन्टू टाहिटनेन एक विश्वविद्यालयमें काम कर रहे हैं । १९५६-५८ में वे वाराणसी में रहे और पी-एच० डी० की उपाधि प्राप्त की। उन्होंने भारतीय परम्परामें अहिंसा नामक एक ग्रन्थ अंग्रेजीमें लिखा है जो १९७६ में प्रकाशित हुआ है। इस ग्रन्थमें उन्होंने जैन ग्रन्थोंके उद्धरण देकर भारतीय परम्परामें अहिंसाकी प्रतिष्ठाको सिद्ध किया है। केम्ब्रिजके प्राच्यविद्या विभागके आचार्य डा० के० आर० जर्मन पालि तथा प्राकृत भाषाओंके विशिष्ट विद्वान हैं । आपते प्राकृत भाषाके भाषाशास्त्रीय अध्ययनमें विशेष रुचि प्रदर्शित की है। आज कल आप जैनागमोंका अध्ययन कर रहे हैं एवं आपके निर्देशनमें कुछ छात्र शोध कार्य भी कर रहे हैं।
__ आस्ट्रेलियन नेशनल यूनिवर्सिटी केनबरा (आस्ट्रेलियन) के प्रो० बाशम और मेटुम हरकुस भारतीय विद्याओंके साथ-साथ जैनविद्याओं पर भी शोध एवं मार्गदर्शन कर रहे हैं। इन्होंने कुछ पुस्तकें भी इस विषय पर लिखी हैं। अनेक शोध-पत्र भी इनके प्रकाशित हये हैं । डा० बाराम तो भारत भी आ चुके हैं। वियना (आस्ट्रिया) के डा० फाडवालनर तथा हाले (पूर्वजर्मनी) के प्रो० मोडेका नाम भी यहाँ उल्लिखित करना आवश्यक है जो अपने-अपने देशोंमें जैनविद्याओंके अध्यापन और शोधमें लगे हुये हैं।
इस प्रकार हम देखते हैं कि अब पाश्चात्य देशोंमें भी अनेक स्थानों पर जैनविद्याओंके अधिकारीविद्वान् प्रतिष्ठित हैं । अनेक विश्वविद्यालय जैनविद्याओंके अध्ययन एवं शोधके केन्द्र बने हैं। हम आशा करते हैं कि ये केन्द्र जैनविद्याओंको समुचित रूपमें प्रकाशित करने में महत्त्वपूर्ण योगदान करते रहेंगे।
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