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References 1. Sandilya-Upanisad 1.1. 2. Chandogya-Upanisad 8.15.1.
Manusmrti 5.44 4. Santi-Parva 15.49. 5. Tattvārtha-Sūtra 7.13. Srāvakācāra by Amitagati 6.12. 6. Puruşārtha-Siddhyapāya 3.43. 7. Ibid, 3.45-46. 8. Ibid, 3.44. 9. Ibid, 3.118. 10. roga-Sastra 2.37, also slokas 33-36. 11. Ibid, 2.40. 12. Ibid, 2.38. 13. Samkhya-Karika 2 14. Vacaspati Misra on Samkhya-Karika 2 15. Vijijanabhiksu on Samkhya-Satra 1.6.
लेखसार
अहिंसा की दो परिभाषायें
डा० अन्टू टाहिटनेन, जीवस्केला विश्वविद्यालय, फिनलेण्ड भारतीय विचारधारा में अहिंसा के संबन्ध में दो प्रकार की विचार-धारायें-श्रमण और वैदिक-पाई जाती है। जैन, बौद्ध और योग के समान श्रमण विचारधारा में किसी भी प्राणी को मन, वचन और काम से किसी भी प्रकार के कष्ट न पहँचाने की प्रवृत्ति और क्रिया को अहिंसा कहते हैं। इस धारा का स्रोत शांडिल्य उपनिषद् में पाया जाता है। वैदिक विचारधारा को छान्दोग्य-उपनिषद् में बताया गया है। इसके अनुसार तीर्थस्थानों को छोड़कर अन्यत्र अहिंसा का अभ्यास किया जाता है । मनुस्मृति और महाभारत में भी कहा गया है कि बुरा काम करनेवाले के प्रति की गई हिंसा भी अहिंसा का ही एक रूप है। अहिंसा के संबन्ध में यह वैदिक मान्यता सार्वभौमिक नहीं है। इसका कारण यह है कि यह मान्यता सामाजिक परिवेश से संबंधित है जबकि श्रमण-मान्यता व्यक्तिगत चरित्र पर आधारित हैं।
___ जैनों ने हिंसा-अहिंसा पर परिश्रमपूर्वक विचार किया है। उन्होंने इसे भाव-प्रधान माना है । यह अन्तरंग के शोधन का एक उपाय है। राग, द्वेष, परिग्रह (अन्तर्वाह्य) आदि के त्याग से अहिंसा प्रकट होती है । ये सब मानसिक प्रवृत्तिर्या हैं । फलतः जैनधर्म में मन की शुद्धता नैतिकता का प्रमुख लक्षण माना गया है।
जैनों ने वैदिक अहिंसा की मान्यता की काफी आलोचना की है । इसकी आलोचना सांख्य, योग और बौद्ध भी करते हैं । उनका कथन है कि 'न हिंस्यात् सर्वभूतानि' का कोई अपवाद नहीं होना चाहिये ।
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