Book Title: Kailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Author(s): Babulal Jain
Publisher: Kailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP

View full book text
Previous | Next

Page 561
________________ चलाइये, चलते फिरते एक विश्वकोशकी भाँति उनका ज्ञान प्रतीत होता रहा । उन्होंने भी संघदासगणि कृत वसुदेवहिडि जैसे महत्त्वपूर्ण ग्रन्थकी ओर विश्वके विद्वानोंका ध्यान आकर्षित किया और इस बातकी बड़े जोरसे स्थापनाकी कि यह अभूतपूर्व रचना पैशाची प्राकृतमें लिखित गुणाढ्यको नष्ट हुई बड्ढककहा (बृहत्कथा)का जैन रूपान्तर है। उनकी वसुदेवहिंडिकी निजी प्रति देखनेका मुझे अवसर मिला है जो पाठान्तरों एवं जगह-जगह अंकित किए हुए नोट्ससे रंगी पड़ी थी। उनका कहना था कि दुर्भाग्यसे इस ग्रन्थकी अन्य कोई पांडुलिपि मिलना तो अब दुर्लभ है किन्तु अनेक स्थलोंको प्रकाशित ग्रन्थके फुटनोट्समें दिये हुए पाठान्तरोंकी सहायतासे अधिक सुचारु रूपसे सम्पादित किया जाना सम्भव है। अपने लेखों और निबन्धोंमें वे बड़ेसे बड़े विद्वानकी भी समुचित आलोचना करनेसे नहीं हिचकिचाते । उन्होंने अवसर आनेपर याकोबी, पिशल, ऐडगटन आदि जर्मनीके सुविख्यात विद्वानोंके कथनको अनुपयुक्त ठहराया । १९७४ में क्लाइने श्रिफ्टेन (लघु निबन्ध) नामक (७६२ पृष्ठोंका एक ग्रन्थ ग्लाजनप फाउण्डेशनकी ओरसे प्रकाशित हुआ है जिसमें आल्सडोर्फके लेखों, भाषगों एवं समीक्षा टिप्पणियोंका संग्रह है। इसमें दृष्टिवादसूत्रकी विषय-सूची (मूलतः यह स्वर्गीय मुनि जिनविजयजीके अभिनन्दन ग्रन्थके लिए लिखा गया था । यह जर्मन स्कालर्स आफ इण्डिया, जिल्द १ पृ० १..५ में भी प्रकाशित है) के सम्बन्धके एक महत्वपूर्ण लेख संग्रहीत है। मडबिद्रीसे प्राप्त हाए षटखंडागम साहित्यके सम्बन्धमें स्वर्गीय डॉक्टर ए० एन० उपाध्येने उल्लेख किया था कि कर्मसिद्धान्तकी गुढ़ताके कारण पूर्व ग्रन्थोंका पठन-पाठन बहुत समय तक अवछिन्न रहा जिससे वे दुष्प्राप्य हो गये। आल्सडोर्फने इस कथनसे अपनी असहमति व्यक्त करते हुए प्रतिपादित किया कि यह बात तो श्वेताश्वरीय कर्मग्रन्थोंके सम्बन्धमें भी की जा सकती है। फिर भी उनका अध्ययन अध्यापन क्यों जारी रहा और वे क्यों दुष्प्राप्य नहीं हुए। इस संग्रहके एक अन्य महत्वपूर्ण निबन्ध आल्सडोर्फने वैताड्य, शब्दकी व्युत्पत्ति वेदाधसे प्रतिपादित की है : वे (य) अड्ढ = वेइअड्ढ - वैदियड्ढ = वेदार्ध । इसे उनकी विषयकी पकड़ और सूझ-बूझके सिवाय और क्या कहा जा सकता है । तात्पर्य यह है कि आल्सडोर्फकी बातसे कोई सहमत हो या नहीं, वे अपने कथनका सचोट और स-प्रमाण समर्थन करने में सक्षम थे। बे अन्तराष्ट्रीय ख्यातिके कितने औरियंटियल रिसर्च पत्र-पत्रिकाओंसे सम्बद्ध थे और इनमें उन्होंने विविध विषयोंपर लिखे हए कितने ही महत्वपूर्ण ग्रन्थोंकी समीक्षायें प्रकाशित की थीं। 'क्रिटिकल पालि डिक्शनरी'के वे प्रमुख सम्पादक थे जिसका प्रारम्भ सुप्रसिद्ध वि० ट्रेकनेरके सम्पादकत्वमें हुआ था । विदेशी विद्वानों द्वारा भारतीय दर्शन एवं धर्म सम्बन्धी अभिमतोंको हम इतना अधिक महत्व क्यों देते आये हैं।? वे यथासम्भव तटस्थ रहकर किसी विषयका वस्तुगत विश्लेषण प्रस्तुत करनेका प्रयत्न करते हैं। अपनी व्यक्तिगत मान्यताओं, विचारों एवं विश्वासोंका उसमें मिश्रण नहीं करते हैं। . संस्कृत, प्राकृत अथवा अपभ्रंशकी रचनाओंका अध्ययन करनेके पूर्व वे इन भापाओंके व्याकरण, कोश, आदिका ठोस ज्ञान प्राप्त करते हैं। तुलनात्मक भाषा विज्ञान उनके अध्ययनमें एक विशिष्ट स्थान रखता है। युरोपकी. आधुनिक भाषाओं में अंग्रेजी, फ्रेंच जर्मन, डच आदिका ज्ञान उनके शोधकार्यमें सहायक होता है । जैनधर्मका अध्ययन करनेवालोंके लिए जर्मन भाषाका ज्ञान आवश्यक है। इस भाषामें कितने ही महत्वपूर्ण और उपयोगी ग्रन्थ एवं लेख ऐसे हैं जिनका अंग्रेजी भाषान्तर अभी तक नहीं हआ। आजके युगमे तुलनात्मक अध्ययनकी आवश्यकता है। उदारणार्थ, जैन अध्ययनके लिए जैनधर्म और दर्शनका अध्ययन ही पर्याप्त नहीं, वैदिक धर्म, बौद्धधर्म तथा यूरोपीय भाषाओंमें हुए शोधका ज्ञान भी आवश्यक है । तुलनाके लिए बौद्धधर्मका अध्ययन तो आवश्यक है ही। इन अध्ययनको व्यवस्थित करनेके लिा चने हुए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630