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यह मनोविज्ञानसे जुड़ा हुआ है और रहस्यमय है। यह धर्म और समाजमें सन्तुलन लाता है। यह मत उपनिषद् धर्मके अधिक समीप लगता है।
डा० कारतियरने अनेक प्राचीन धर्म ग्रन्थोंके आधार पर यह भी प्रमाणित किया है कि बौद्ध धर्म पर ही येनमतकी छाप पड़ी है। उदाहरणार्थ, योगमें चित्तवृत्ति निरोध, आत्मानुभूति, समय और धार्मिक क्रियायें येनमतकी ही विशेषतायें हैं, बौद्ध धर्मकी नहीं।
मुझे पन्द्रह वर्ष पूर्व येनमतके विषयमें जानकारी प्राप्त हुई थी। मैंने अनेक विदेशगन्ताओंसे इसके विषयमें विशेष जानकारी चाही थी, पर उनका विश्वास था कि जापान में तो बौद्ध धर्म ही है, येन-जैसा कोई पृथक धर्म नहीं है। अपने शोधकोंके प्रमादसे मैं इस विषय पर विस्तृत विचार नहीं कर पाया। लेकिन डा० कारतियरके विवरणसे इस विषयमें जो तथ्य सामने आते हैं। वे मेरी दृष्टिसे निम्न हैं :
येनमत जैनधर्मकी शाखा सम्भावित है क्योंकि इसमें वणित स्वानुभूति ही सम्यग दर्शन है और स्व-अनुशासन ही निश्चय चारित्र है। इन दोनोंका संबंध आत्माश्रयी है, वाह्यस्रोती नहीं। इसमें अनेक धर्मोंके मिश्रणकी संभावनायें इसके अनेकान्तवादी दृष्टिकोणको व्यक्त करती हैं। इसका ध्यान जैनधर्ममें मोक्ष या निर्वाण या आत्मानुभूतिका साधन बताया गया है। जैनधर्म भी आत्माको शुद्ध, बुद्ध मानता है
और निर्वाणको ईश्वर कृपा पर निर्भर नहीं मानता। येनके समान ही जैनधर्म भी दरबारी धर्म नहीं रहा । यह बौद्धधर्मसे पूर्ववर्ती भ० पार्श्वनाथके समयमें भी प्रचलित था। इसमें वीतरागता और आत्मानुभूतिको उच्च स्थान प्राप्त है । जैनधर्ममें संयम पर भी बल दिया गया है ।
इस प्रकार येन और जैनधर्म में न केवल नाम-साम्य है, अपितु उसके सिद्धान्त भी समान हैं। क्या ऐसा माना जा सकता है कि सहस्रों वर्ष पूर्व जब बौद्ध चिन्तक एशियाई देशोंमें धर्म प्रचार हेतू गये थे, तब जैन चिन्तक भी गये हों? उस समय जहाँ जैनधर्मका अधिक प्रभाव पड़ा हो, वे आज भी 'येन' कहलाते हों ? यह विचार मात्र भावनात्मक नहीं हो सकता, इस विषयमें शोधकों को विचार करना चाहिये।
जैनधर्मानुयायी वाणिज्यिक रहे हैं और आज भी उनका इसी ओर झुकाव है। इसलिये उनसे इस प्रकारकी खोजकी क्या आशा की जावे ? इनकी अनेक संस्थाओंको तो अपने देशमें ही अपने धर्म और समाज पर वात्सल्य नहीं है, फिर विदेशोंकी तो बात ही क्या ? क्या सराक जाति संबंधी शोधसे हमारी समाज या संस्थायें प्रभावित हुई हैं ? संस्कृतज्ञ विद्वानोंको भी पारस्परिक शास्त्रार्थ में ही विश्वास है। मैं इस लेख द्वारा समाजके प्रबुद्ध वर्ग तथा धार्मिक वर्गका ध्यान इस प्रकारकी शोधोंकी ओर आकर्षित करना चाहता हूं। उन्हें आजकी आवश्यकताको समझने तथा अनुदार वृत्ति को छोड़नेका आग्रह करना चाहता हूँ । इसके बिना धर्मकी उन्नति, प्रभावना, प्रचार-प्रसार व कालान्तर स्थायित्व-कुछ भी नहीं हो सकता।
मेरे ध्यानमें हमारे प्रमादके अनेक उदाहरण हैं । एक बार एक प्रभावी राजनीतिक नेताने भूतपूर्व सिन्ध प्रान्तमें जैनधर्म और उसके तीर्थंकरोंके विषयमें एक लेख लिखा था। वह बड़ा ही रोचक एवं ऐतिहासिक विषय था । लेकिन उसपर भी हमारा ध्यान नहीं गया। यही नहीं, कभी-कभी तो हम शोधकोंको हतोत्साह भी करते हैं । एक बार इलाहाबादके सुप्रसिद्ध अजैन विद्वान्ने हुकुमचन्द्र अभिनन्दन ग्रन्थके लिए एक जैन इतिहाससे सम्बन्धित गवेषणापूर्ण लेख भेजा था। वह लेख प्रकाशित तो नहीं ही किया गया, उसे लौटाया भी नहीं गया । इसीलिये एक बार जब मैंने उन्हें महावीर जयन्ती पर कटनी आमन्त्रित किया, तो उन्होंने नकारात्मक उत्तर देते हुए लिखा, "मुझे जैनोंसे जगप्सा हो गई है।"
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