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हेल्थ वान ग्लासनेपकी पुस्तक "द डाक्ट्रीन ऑव जर्मन इन जैन फिलासफी " अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है जो सन् १९४२ में बम्बईसे प्रकाशित हुई थी । ऐतिहासिक दृष्टिसे जीमर और स्मिथके कार्य विशेष रूपसे उल्लेखनीय हैं । एफ० डब्ल्यू० थॉमसने आ० हेमचन्द्र कृत 'स्याद्वादमंजरी' का बहुत सुन्दर अंग्रेजी अनुवाद अनुवाद किया जो १९६० ई० में बलिनसे प्रकाशित हुआ । १९६३ ई० में आर० विलियम्सने स्वतन्त्र रूपसे ‘जैनयोग' पर पुस्तक लिखी जो १९६३ ई० में लन्दनसे प्रकाशित हुई । कोलेट केल्लटने जैनोंके श्रावक तथा मुनि आचार विषयक एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक "लेस एक्सपिएशन्स डान्स ले रिचुअल एन्शियन डेस रिलिजियक्स जैन" लिखकर १९६५ ई० में पेरिससे प्रकाशित की। वास्तवमें इन सब विषयों पर इस लघु निबन्ध में लिख पाना सम्भव नहीं है । केवल इतना ही कहा जा सकता है कि परमाणुवादसे लेकर वनस्पति, रसायन आदि विविध विषयोंका जैनागमोंमें जहाँ कहीं उल्लेख हुआ है, उनको ध्यानमें रखकर विभिन्न विद्वानोंने पत्र-पत्रिकाओंके साथ ही विश्वकोशों में भी उनका विवरण देकर शोध व अनुसन्धानकी दिशाओंको प्रशस्त किया है । उनमेंसे जैनोंके दिगम्बर साहित्य व दर्शन पर जर्मनी विद्वान् वाल्टर डेनेके (Walter Denecke) ने अपने शोध-प्रबन्धमें दिगम्बर आगमिक ग्रन्थोंका भाषा व विषयवस्तु दोनों रूपों में पर्यालोचन किया था । उनका प्रबन्ध सन् १९२३ में हैम्बुर्ग से "दिगम्बर - टेक्स्टे : ईने दर्शतेलुंग इहरेर प्राख उन्ड इहरेस इन्हाल्ट्स" के नामसे प्रकाशित हुआ था ।"
भारतीय विद्वानोंमें डॉ० आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये, डॉ० हीरालाल जैन, पं० बेचरदास दोशी, to बोध पण्डित, सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचन्द्र, सिद्धान्ताचार्य पं० फुलचन्द्र, डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री, पं० सुखलाल संघवी, प० दलसुख भाई मालवणिया, डॉ० राजाराम जैन, डॉ० एच० सी० भायाणी, डॉ० के० आर० चन्द्र, डॉ० देवेन्द्रकुमार जैन, डॉ० प्रेमसुमन और लेखकके नाम उल्लेखनीय हैं । डॉ० उपाध्येने एक दर्जन प्राकृत ग्रन्थोंका सम्पादन कर कीर्तिमान स्थापित किया । अपभ्रंशके 'परमात्मप्रकाश' का सम्पादन आपने ही किया । 'प्रवचनसार' और 'तिलोयपण्णत्ति' जैसे ग्रन्थोंके सफल सम्पादनका श्रेय आपको है । साहित्यिक तथा दार्शनिक — दोनों प्रकारके ग्रन्थोंका आपने सुन्दर सम्पादन किया । आचार्य सिद्धसेनके 'सन्मतिसूत्र' का भी सुन्दर संस्करण आपने प्रस्तुत किया, जो बम्बईसे प्रकाशित हुआ । प्राच्यविद्याओंके क्षेत्रमें आपका मौलिक एवं अभूतपूर्व योगदान रहा है । डॉ० हीरालाल जैन और सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्रीने महान् सैद्धान्तिक ग्रन्थ धवला, जयधवला आदिका सम्पादन व अनुवाद कर उसे जनसुलभ बनाया । अपभ्रंश ग्रन्थोंको प्रकाशमें लानेका श्रेय डॉ० हीरालाल जैन, पी० एल० वैद्य, डॉ० हरिवल्लभ चुन्नीलाल भायाणी, पं० परमानन्द शास्त्री, डॉ० राजाराम जैन, डॉ० देवेन्द्रकुमार जैन और डॉ० देवेन्द्रकुमार शास्त्रीको है रे । पं० परमानन्द जैन शास्त्रीके 'जैन ग्रन्थ प्रशस्ति-संग्रह' के पूर्व तक अपभ्रंशकी लगभग २५ रचनाओंका पता चलता था, किन्तु उनके प्रशस्ति-संग्रह प्रकाशित होनेसे १२६ रचनाएँ प्रकाश में आ गईं। लेखक ने “ अपभ्रंश भाषा और साहित्य की शोध प्रवृत्तियाँ" में अपभ्रंशके अज्ञात एवं अप्रकाशित ग्रन्थोंके अंश उद्धृत कर लगभग चार सौ अपभ्रंशके ग्रन्थोंको प्रकाशित कर दिया है । जिन अज्ञात व अप्रकाशित रचनाओंको पुस्तकमें सम्मिलित नहीं किया गया, उनमेंसे कुछ नाम हैं :
१. शीतलनाथकथा ( श्री दि० जैन मन्दिर, घियामंडी, मथुरा ), २. रविवासरकथा -- मधु (श्री दि०
१. "प्राकृत स्टडीज आउटसाइड इण्डिया (१९२०-६९ ) " एस० डी० लद्दू, प्रोसीडिंग्स ऑव द सेमिनार इन प्राकृत स्टडीज, पूना युनिवर्सिटी, १९७०, पृ० २०९ ॥
२. डॉ० देवेन्द्रकुमार शास्त्री : अपभ्रंश भाषा और साहित्यकी शोध प्रवृत्तियाँ, भारतीय ज्ञानपीठ, १९७२ ॥
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