Book Title: Kailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Author(s): Babulal Jain
Publisher: Kailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP

View full book text
Previous | Next

Page 538
________________ द जैन सिद्धान्त भवन, आरा" ( १९१९ ई०) एवं दलाल और लालचन्द्र भ० गांधी द्वारा सम्पादित "कैटलाग ऑव मैन्युस्क्रिप्ट्स इन जैसलमेर भाण्डाराज' गायकवाड़ ओ० सी०, बड़ौदा (१९२३ ई०), रायबहादुर हीरालाल, “केटलाग ऑव संस्कृत एण्ड प्राकृत मैन्युस्क्रिप्ट्स इन द सी० पी० एण्ड बरार", नागपुर, १९२६ई० आदि उल्लेखनीय हैं । आधुनिकतम खोजोंके आधारपर इस दिशामें कुछ अधिक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ-सूचियोंका निर्माण हआ, जिनमें एच. डी. वेलणकरका "केटलाग ऑव प्राकृतिक मैन्युस्क्रिप्टस", जिल्द ३-४, बम्बई (१९३० ई०) तथा 'जिनरत्नकोश', पूना (१९४४ ई०), हीरालाल रसिकदास कापड़िया का “डिस्क्रिप्टिव केटलाग ऑव मैन्युस्क्रिप्ट्स इन द गवर्नमेण्ट मैन्युस्क्रिप्ट्स लाइब्रेरी", भण्डारकर ओ० रि० इं०, पूना (१९५४ ई०), डॉ० कस्तूरचन्द कासलीवालका "राजस्थान के जैन शास्त्र-भण्डारोंकी ग्रन्थसूची", भा० १-५ तथा मुनि विजयजीके “ए केटलाग ऑव संस्कृत एण्ड प्राकृत मैन्युस्क्रिप्ट्स इन द राजस्थान ओ० रि० इ० जोधपुर कलेक्शन" एवं पुण्यविजयजीके पाटनके जैन भण्डारोंकी ग्रन्थ-सूचियाँ अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं । अपभ्रशके जैन ग्रन्थोंकी प्रकाशित एवं अप्रकाशित हस्तलिखित ग्रन्थोंकी सूचीके लिए लेखककी भारतीय ज्ञानपीठसे प्रकाशित पुस्तक "अपभ्रंश भाषा और साहित्यकी शोध-प्रवृत्तियाँ" पठनीय है, जिसमें अपभ्रंशसे सम्बन्धित सभी प्रकारका विवरण दिया गया है। वास्तवमें जरमन विद्वान् वाल्टर शुब्रिगने सर्वप्रथम जैन हस्तलिखित ग्रन्थोंकी बृहत् सूची तैयार की थी जो १९४४ ई० में लिपजिगसे प्रकाशित हुई और जिसमें ११२७ जैन हस्तलिखित ग्रन्थोंका पूर्ण विवरण पाया जाता है। यह सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य माना जाता है। इस प्रकारके कार्योंसे ही शोध व अनुसन्धानकी दिशाएँ विभिन्न रूपोंको ग्रहण कर सकी। आधुनिक युगमें प्राकृतिक तथा अपभ्रंश विषयक शोध-कार्य मुख्य रूपसे तीन धाराओंमें प्रवाहित रहा है—(१) साहित्यिक अध्ययन, (२) सांस्कृतिक अध्ययन और (३) भाषावैज्ञानिक अध्ययन । साहित्यिक के अन्तर्गत जैन-आगम-साहित्यका अध्ययन प्रमुख है। यह एक असन्दिग्ध तथ्य है कि आधुनिक युगमें जैनागमोंका भलीभाँति अध्ययन कर उनको प्रकाशमें लानेका श्रेय जर्मन विद्वानोंको है । यद्यपि संस्कृत के कतिपय जैन ग्रन्थोंका अध्ययन उन्नीसवीं शताब्दीके प्रारम्भमें होने लगा था, किन्तु प्राकृत तथा अपभ्रंश साहित्यका सांगोपांग अध्ययन डॉ. हर्मन जेकोबीसे आरम्भ होता है। डॉ. जेकोबीने कई प्राकृत जैन ग्रन्थों का सम्पादन कर उनपर महत्त्वपूर्ण टिप्पण लिखे । उन्होंने सर्वप्रथम श्वेताम्बर जैनागम-ग्रन्थ भगवतीसूत्र'का सम्पादन कर १८६८ ई० में प्रकाशित किया। तदुपरान्त 'कल्पसूत्र' (१८७९ ई.), "आचारांगसूत्र" (१८८५ ई०) 'उत्तराध्ययनसूत्र' (१८८६ ई०) आदि ग्रन्थोंपर शोध-कार्य कर सम्पादित किया । इसी समय साहित्यिक ग्रन्थोंमें जैन कथाओंकी ओर डॉ० जेकोबीका ध्यान गया । सन् १८९१ ई० में 'उपमितिभवप्रपंचकथा' का संस्करण प्रकाशित हुआ। इसके पूर्व 'कथासंग्रह' १८८६ ई० में प्रकाशित हो चका था। 'पउमचरियं', 'णमिणाहचरिउ' और 'सणयकुमारचरिउ' क्रमशः १९१४, १९२१-२२ में प्रकाशित हुए । इसी अध्ययनकी शृंखलामें अपभ्रंशका प्रमुख कथाकाव्य 'भविसयत्तकहा' का प्रकाशन सन् १९१८ में प्रथम बार मंचन (जरमनी) से हुआ। इस प्रकार जरमन विद्वानोंके अथक प्रयत्न, परिश्रम तथा लगातार शोधकार्यों में संलग्न रहनेके परिणाम स्वरूप ही जैन विद्याओंमें शोध व अनुसन्धानके नए आयाम उन्मुक्त हो सके हैं। ऑल्सडोर्फने 'कूमारपालप्रतिबोध' (१९२८ ई०), हरिवंशपुराण (महापुराणके अन्तर्गत), (१९३६ ई०), उत्तराध्ययनसूत्र, मूलाचार, भगवतीआराधना (१९६८) आदि ग्रन्थोंका सुसम्पादन कर प्राकृत तथा अपभ्रंश साहित्य पर महान् कार्य किया। वाल्टर शुब्रिगने 'दसवेयालियसुत्तं' का एक सुन्दर संस्करण तथा १. एफ० विएसिंगर : जरमन इण्डोलॉजी : पास्ट एण्ड प्रिजेन्ट, बम्बई, १९६९, पृ० २१ । -४९३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630