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जैन मन्दिर, कामा), ३. आदित्यवारकथा-अर्जुन (श्री दि० जैन पंचायती मन्दिर, दिल्ली)। इनके अतिरिक्त ईडर व नागौरके भण्डारोंमें पाए जानेवाले कुछ महत्त्वपूर्ण अपभ्रंश रचनाओंकी भी जानकारी मिली है। उन सबको मिलाकर आज अपभ्रंश-साहित्यकी छोटी-बड़ी रचनाओंको मिलाकर उसकी संख्या पाँच सौ तक पहुंच गई है। शोध व अनुसन्धानकी दिशाओंमें आज एक बहुत बड़ा क्षेत्र विद्वानोंकी राह जोह रहा है । शोध कार्यकी कमी नहीं है, श्रमपूर्वक कार्य करनेवाले विद्वानोंकी कमी है।
विगत तीन दशकोंमें जहाँ प्राकृत व्याकरणोंके कई संस्करण प्रकाशित हुए, वहीं रिचर्ड पिशेल, सिल्वालेवी और डॉ. कीथके अन्तनिरीक्षणके परिणामस्वरूप संस्कृत नाटकोंमें प्राकृतका महत्त्वपूर्ण योग प्रस्थापित हआ। आर० श्मितने शौरसेनी प्राकृतके सम्बन्धमें उसके नियमोंका (एलीमेन्टरबख देर शौरसेनी, हनोवर, १९२४), जार्ज ग्रियर्सनने पैशाची प्राकृतका, डॉ० जेकोबी तथा ऑल्सडोर्फने महाराष्ट्री तथा जैन महाराष्ट्रीका और डब्ल्यू. ई० कर्कने मागधी और अर्द्धमागधीका एवं ए. बनर्जी और शास्त्रीने मागधीका (द एवोल्युशन ऑव मागधी, आक्सफोर्ड, १९२२) विशेष अध्ययन प्रस्तुत किया था। भाषावैज्ञानिक दृष्टिसे नित्ति डोल्चीका विद्वत्तापूर्ण कार्य, 'लेस ग्रैमेरियन्स प्राकृत्स' (पेरिस, १९३८) प्रायः सभी भाषिक अंगों पर प्रकाश डालनेवाला है। नित्ति डोल्चीने पुरुषोत्तमके 'प्राकृतानुशासन' (पेरिस, १९३८) तथा रामशर्मन् तर्कवागीशके 'प्राकृतकल्पतरु' (पेरिस, १९३९) का सुन्दर संस्करण तैयार कर फ्रांसीसी अनुवाद सहित प्रकाशित कराया। व्याकरणकी दृष्टिसे सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य रिचर्ड पिशेलका 'ग्रैमेटिक देअर प्राकृत-प्राखन' अद्भुत माना जाता है, जिसका प्रकाशन १९०० ई० में स्ट्रासवर्गसे हआ। .
इधर भाषाविज्ञानको कई नवीन प्रवृत्तियोंका जन्म तथा विकास हुआ। परिणामतः भाषाशास्त्रके विभिन्न आयामोंका प्रकाशन हुआ। उनमें ध्वविपिज्ञान, पदविज्ञान, वाक्यविज्ञान तथा शब्दव्युत्पत्ति व शब्दकोशीय अध्ययन प्रमख कहे जाते हैं। ध्वनिविज्ञान विषयक अध्ययन करनेवालोंमें 'मिडिल इण्डो-आर्यन' के उपसर्ग, प्रत्यय, ध्यनिविषयक पद्धति तथा भाषिक उच्चारों आदिका विश्लेषण किया गया। इस प्रकार के अध्ययन करनेवालोंमें प्रमुख रूपसे आर० एल० टर्नर, एल० ए० स्वार्स चाइल्ड, जार्ज एस० लेन, के० आर० नॉर्मनके नाम लिए जा सकते हैं ।
एल० ऑल्सडोर्फके नव्य भारतीय आर्य-भाषाओंके उद्गम पर बहुत अच्छा अध्ययन किया जो रूपरचना विषयक है। लुइस एच० ग्रेने "आब्जर्वेशन्स आन मिडिल इण्डियन मार्कोलॉजी" (बुलेटिन स्कूल
ऑव ओरियन्टल स्टडीज, लन्दन, जिल्द ८, पृ० ५६३-७७, सन् १९३५-३७) में संस्कृत व वैदिक संस्कृतके रूप-सादश्योंको ध्यानमें रखकर उनकी समानता व कार्योंका विश्लेषण किया है। इस भाषावैज्ञानिक शाखा पर कार्य करनेवाले उल्लेखनीय विद्वानों व भाषाशास्त्रियोंके नाम है-ज्यूल ब्लॉख, एडजर्टन, ए० स्वार्स चाइल्ड, के० आर० नॉर्मन, एस० एन० घोषाल, डॉ० के० डेवीस :
वाक्य-विज्ञानकी दृष्टिसे अध्ययन करनेवाले विद्वानोंमें मुख्य रूपसे डॉ० ऑल्सडोर्फ, डॉ० के० डेव्रीस, एच. हेन्द्रिकसेन, पिसानी आदिके नाम उल्लेखनीय है । इस अध्ययनके परिणामस्वरूप कई तथ्य प्रकाशमें आए। एच० हेन्द्रिकसेनने अपने एक लेख "ए सिन्टेक्टिक रूल इन पालि एण्ड अर्द्धमागधी" में कृदन्त-रूपोंके प्रयोगकी वृद्धिंगत पाँच अवस्थाओंका उद्घाटन किया है। के० अमृतराव, डॉ० के० डेवीस, डॉ. सुनीतिकुमार चटर्जी, कुइपर आदिने प्राकृत पर द्रविड़ तथा अन्य आर्येतर भाषाओंके प्रभावका अध्ययन किया। १. प्रोसीडिंग्स ऑव द सेमिनार इन प्राकृत स्टडीज, पूना युनिवर्सिटी, १९७०, पृ० २२३ । २. वही, पृ० २३ ।
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