Book Title: Kailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Author(s): Babulal Jain
Publisher: Kailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP

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Page 526
________________ महाकवि असग और उनकी कृतियाँ श्रीमती प्रतिभा जैन, आयुर्वेद महाविद्यालय, रीवाँ प्रतिभा और कल्पनाके धनी महाकवि असग संस्कृत साहित्यके जाज्वल्यामान रत्न हैं । वे मूलतः निवासी तथा कन्नड़ भाषाके प्रसिद्ध कवि रहे हैं । महाकविने वर्धमानचरितम् के अन्त में अपने द्वारा रचित आठ ग्रंथोंकी सूचना दी है। किन्तु उनकी नामावली अप्राप्त होनेके कारण उस विषयमें कुछ कहा नहीं जा सकता । आज उनके दो ग्रन्थ, एक महाकाव्य - वर्धमानचरितम्' तथा दूसरा पुराण - श्री शान्तिनाथ पुराण' उपलब्ध हैं । जयकीर्ति ( १००० ई० ) ने असग द्वारा रचित कर्णाटकुमारसम्भवका वर्णन किया है, किन्तु यह भी अप्राप्त है । शेष ग्रन्थ अभी भी अज्ञात हैं जो सम्भवतः कन्नड़ भाषाके होगें और दक्षिण भारत के किन्हीं भण्डारोंमें पड़े हों या नष्ट हो गये हों और भाषाकी विभिन्नतासे उनका उत्तर भारत में प्रचार नहीं हो रहा हो। अभी तक असगके ग्रन्थोंपर संस्कृतकी कोई टीका प्रकाशमें नहीं आई है । बी०बी० लोकापुर ने एक भोजपत्र प्राप्त किया है जिसमें वर्धमानपुराण पर कन्नड़ व्याख्यानका उल्लेख है । यह शब्दार्थ और अन्वयसे युक्त है जिसे मूल ग्रन्थको अच्छी तरह समझा जा सकता है। इसके अतिरिक्त, हेलेगी उपाध्याय परिवार में कन्नड़ व्याख्यासे युक्त वर्धमानपुराण उपलब्ध है । जीवन परिचय महाकविने वर्धमानचरितम् और शान्तिनाथपुराणकी प्रशस्तिमें अपना कुछ विशिष्ट परिचय दिया है । इससे इतना स्पष्ट होता है कि असगके पिताका नाम पटुमति और माताका नाम वैरेति था । उनके मातापिता मुनिभक्त थे । बाल्यकालमें उनका विद्याध्ययन मुनियोंके सानिध्य में हुआ । उन्होंने श्री नागनन्दी आचार्य और भावकीत मुनिराजके चरणोंमें शिक्षा पायी । कविने वर्धमानचरितम्की प्रशस्तिमें अपने पर ममताभाव प्रगट करने वाली सम्वत् श्राविकाका और शान्तिनाथपुराणकी प्रशस्ति में अपने मित्र जिनाप ब्राह्मणका उल्लेख किया है । अतः प्रतीत होता है कि दोनों ग्रंथोंके रचना कालमें महाकवि गृहस्थ ही थे, मुनि नहीं । इसके पश्चात् वे मुनि हुये या नहीं, इसका निर्देश नहीं मिलता है । महाकविने शान्तिनाथपुराण में रचना कालका उल्लेख नहीं किया है परन्तु वर्धमानचरितम् में संवत्सरे दशनवोत्तरवर्षयुक्ते श्लोक द्वारा उसका उल्लेख किया है । 'अंकानां वामतो गतिः' के सिद्धान्त के अनुसार दशनवका अर्थ ९१० होता है और उत्तरका अर्थ उत्तम भी होता है, अतः संवत्सरे दशनवोत्तरवर्षयुक्तेका अर्थ ९१० संख्यक उत्तमवर्षोंके युक्त सम्वत् होता है । अब विचारणीय यह है कि ९१० शक् सम्वत् है या विक्रम सम्वत् है । डा० ज्योति प्रसाद जैन इसे विक्रम सम्वत् ( ८५३ ई०) मानते क्योंकि १- २. श्री जीवराज जैन ग्रन्थमाला, शोलापुरने वर्धमानचरितम् और शान्तिनाथपुराण, हिन्दी अनुवादके साथ डा० पन्नालाल जैन साहित्याचार्य के सम्पादन में प्रकाशित किया है । ३. डा० एन० एन० उपाध्ये, वर्धमानचरितम्की प्रस्तावना । ४. एच० डी० बेलनकार :- जिनरत्नकोष, पूना, १९४०, पृष्ठ ३३६, ३४०२, ३८१ । - ४८१ - ६१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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