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मूलराज द्वितीयका राज्यकाल श्री मजुमदारने अपनी पुस्तक चौलुक्याज आफ गुजरातमें ११७५११७८ लिखा है। इसी अवधिको हम सोमेश्वरदेवका जन्मकाल मान सकते हैं, अतः ११७० ई० के निकट इनका जन्म हुआ होगा। उनकी अन्तिम रचना १२५४ ई० की बैद्यनाथ प्रशस्ति है। इस प्रकार सोमेश्वरदेवकी मृत्यु तिथि १२५५ के निकट हो सकती है। इस प्रकार उन्हें लगभग ८५ वर्ष की आयु प्राप्त हुई । १२११ में रची हुई एक प्रशस्ति हिस्टोरिकल इन्सक्रिपसन्स आफ गुजरातमें भाग ३ क्रमांक २१५में उल्लिखित है । यह प्रशस्ति सोमेश्वरदेवने सन् १२११ ई० में मंत्री वस्तुपाल द्वारा बनवाये गये आबू देलवाड़ा न्दिर पर उत्कीर्ण कराने के लिये लिखी थी। सूरथोत्सवकी रचना इस अभिलेखके पहले हई क्योंकि इसमें सोमेश्वरदेवने कहीं भी बाघेल नरेश अर्णोराज, लवण प्रसाद, वीरधवल तथा उनकी राजधानी घोलकाका उल्लेख नहीं किया है जबकि आबू देलवाड़ाकी सन् १२११ ई० के प्रशस्तिमें उन्होंने अर्णोराजके वंशज लवण प्रसाद तथा उनके पुत्र वीरधवलके भी उल्लेख किये हैं। वस्तुपाल और तेजपालको वीर धवलके मंत्रीके रूपमें प्रतिष्ठित बतलाया है । इस प्रकार सुरथोत्सवका रचनाकाल १२०० ई० के निकट हो सकता है। इस आधार पर सोमेश्वरदेवका साहित्य काल १२०० ई० से १२५५ ई० तक मानने में कोई कठिनाई नहीं है।
सोमेश्वरदेवके दो महाकाव्य-सुरथोत्सव तथा कीर्तिकौमुदी तथा एक नाटक उल्लाधराधव प्रसिद्ध हैं । उनके विषय में यहाँ संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है।
सुरथोत्सवका विवरण-कविने प्रशस्तिमें लिखा है कि जब हेमचन्द्र जैसे विद्वान दिवंगत हो गये और प्रहलादन जैसा उपकारी व्यक्ति नहीं रहा, तब उन दोनोंके गुण मंत्री वस्तुपालमें एकत्र दिखलाई पड़े। इन्हीं वस्तुपालकी कीर्तिगान करनेके लिये सुरथोत्सवकी रचना की गई। इसकी कथावस्तु दुर्गा सप्तशती अथवा मार्कण्डेय पुराणके देवीमहात्म्य पर आधारित है। कविने इस पर अपनी प्रतिभाका कलेवर चढ़ा कर इसे महाकाव्यका रूप दे दिया है। इस काव्यमें कविके पाडित्य, वैदग्ध्य, रसमयताका प्रवाह तथा प्रौढ़ प्रतिभाके दर्शन होते हैं। सुरथोत्सवमें पन्द्रह सर्ग हैं-सूरथवर्णनम्, देवी चरित निवेदनम्, विरंचिवर्णनम्, हिमालयवर्णनम्, ऋतुवर्णनम्, चन्द्रोदयवर्णनम्, देवीदर्शनम्, धूमलोचन बध, दैत्यप्रयाणम्, युद्धवर्णनम्, शुम्भवध, सुरथतपोवर्णनम्, मायांगनावर्णनम्, राज्यलाभः तथा कवि प्रशस्ति ।
ग्रंथमें कथानकके जो विविध मोड़ आते हैं, उन्हींके अनुकूल भाषा कहीं अल्प-समास यक्त तथा कहीं समास-बहुला है । बहुतसे स्थलों पर प्रसाद गुणसे परिपूर्ण सरल एवं बोध-गम्य भाषाशैली अपनाई है । ऐसे भी स्थल हैं जहाँ दुरूह क्लिष्ट पदावली है और अनेकार्थक पदोंके कतिपय प्रयोग हैं। देवी और दैत्योंके युद्ध में एक ऐसा ही उदाहरण भी दृष्टव्य है :
कोकिलालक-कोलालिकालाः कीलाललुः ।
काकाः कगांल कीलालं कलाकल-कूलाकुले । काव्यमें वीर रसके परिपाकके साथ ही रूपककी मनोहारी छटा भी दर्शनीय है। युद्ध स्थली एक वन है, जहाँ विद्यमान वीर ही व्याघ्र आदि हिंसक जन्तु हैं। वहीं दो विशाल वृक्षोंकी भाँति चण्ड और मुण्ड नामक दो रणोद्यत दैत्य उपस्थित है । मेघखण्डोंसे प्रकट होने वाली विद्युतकी भाँति अतिशय तेजस्विनी देवी दुर्गाने उन दोनोंका हनन कर डाला।
कतिपय स्थलों पर सोमेश्वर देव कालिदासी बेदर्भी रीतिकी प्रसादपूर्ण शैलीको अपनाते हुये प्रतीत होते हैं। राजा सुरथ तपः साधनाके लिये तपोवनमें प्रवेश करते हैं। उनके स्वागतमें लतायें नृत्य करती हैं, मर्मर ध्वनि करते हुये वंशवृक्ष मंगलगीत गाते हैं :
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