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चतुरस्रका क्षेत्रफल = / (s - a) (s – b) (s - c) (s जहाँ
( चक्रीय चतुरस्र में a = 90°, Cos a = 0, चित्र 1 )
a = चतुरस्र के आमने-सामनेके कोणोंके योगका आधा
चतुरस्रोंका क्षेत्रफल निकालनेके लिये महावीरने निम्न नियम प्रतिपादित किया है : भुजावृत्यर्धचतुष्काद् भुजहीनाद् घातितात् पदं सूक्ष्मं । मुखतलयुतिदलमवलम्ब गुणैर्न
अथवा
यही बात श्रीधरकी पाटीगणित में इस प्रकार कही गयी है :
विषमाह । ( ११७)
अर्थात् चारों भुजाओंका योग निकालकर उसका आधा करो और इस फलमें क्रमशः प्रत्येक भुजा की लम्बाई घटाओ, फिर चारोंको गुणा करो, फिर इसका वर्गमूल निकाल लो। ऐसा करनेसे चतुरस्रका क्षेत्रफल निकल आवेगा ।
भुजयुतिदलं चतुर्धा भुजहीनं तदवधात्पदं गणितम् सदृशासमलम्बानामसदृशलम्बे
यह स्मरण रखना चाहिये कि यह नियम सभी चतुरस्रोंके लिये लागू नहीं है । द्वितीय आर्यभट्ट स्पष्टतया इंगित किया हैं कि त्रिभुजोंके लिये तो यह नियम ठीक है, किन्तु जब तक कर्ण ( diagonal) का ज्ञान न हो, चतुरस्रका न तो क्षेत्रफल निकाला जा सकता है और न इसके लम्बक निर्धारित किये जा सकते हैं :
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- a b c d Cos2 C.
बिना कर्णके जाने जो गणितज्ञ चतुरस्र क्षेत्रका क्षेत्रफल निकालना चाहते हैं, वे मूर्ख और पिशाच हैं । ऐसे कठोर शब्द आर्यभट्ट द्वितीयने कहे हैं । महावीर, ब्रह्मगुप्त, श्रीधर आदिने चतुरस्रोंके विषय में जो कहा है, वह केवल चक्रीय चतुरस्रोंके विषयमें है ।
पाँच जातियोंके चतुरस्रोंके कर्ण जानने के लिये महावीरने निम्न नियम दिया है :
अथवा
कर्णज्ञानेन विना चतुरस्र लम्बकं फलं यद्वा ।
वक्तुं वाञ्छति गणको यो ऽसौ मूर्खः पिशाचो वा ।। ( महासिद्धान्त, २५।७० )
( चक्रीय ) चतुरस्रका कर्ण
विषमचतुर ।। (ग० सा० सं० ७1५० )
यह नियम भी केवल चक्रीय चतुरस्रोंके लिए यथार्थ है, ऊपरके श्लोकमें जो कहा है, उसे हम बीजगणितीय शब्दों में निम्न प्रकार व्यक्त कर सकते हैं :
क्षितिहतविपरीतभुजा मुखगुणभुजमिश्रितौ गुणच्छेदौ ।
छेदगुणी प्रतिभुजयोः सवर्गयुतेः पर्द कर्णौ || (ग० सा० सं०, ७1५४)
=
=
(ac + bd) (ab + cd) ad + bc
(ac + bd) (ad + bc )
ab + cd
वृत्तमें व्यास और परिधिका सम्बन्ध - महावीरके अनुसार यदि वृत्तके व्यासको १० के वर्ग मूलसे गुणा कर दिया जाय, तो परिधिका मान निकल आता है । आज कल के शब्दों में
√80=π
परिधि व्यास
=
= ३.१६
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