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उतरते । जो विश्वविद्यालय अधिनियम के अन्तर्गत समर्थ शोध निर्देशक हैं उन्हें जैन शास्त्र तथा वाणीका सम्यक् ज्ञान नहीं होता । इसी क्रम में विषयका चयन और तत्सम्बन्धित सामग्री - संकलन अनुसंधित्सुके लिए सिर-शूल बन जाता है । जैन भांडारों में लुप्त - विलुप्त शास्त्रोंकी खोज लिपि-विज्ञानको न समझ पानेकी खीज वस्तुतः उसे नैतिक स्खलन तथा सत्यहनन करने-कराने के लिए विवश करता है ।
ऐसी विषम परिस्थितिमें क्या कुछ होना चाहिए यह वस्तुतः जागरूक प्रश्न है ? मेरे दृष्टिकोणसे दो काम हमें आगे आकर करने चाहिए । प्रथमतः विश्वविद्यालयों में देशके ऐसे विरल विद्वानोंकी जैनविद्या हेतु नियुक्तियाँ कराई जाएँ, दूसरे, विद्या केन्द्रोंपर ही सामाजिक शोध संस्थानोंकी स्थापनाएँ की जाएँ जहाँ समाजके निष्णात विद्वानोंकी सेवाएँ सुलभ कराई जावें ताकि ऐसे शोधार्थियोंकी सारस्वत कठिनाइयोंको सुलभ कराया जा सके, फलस्वरूप इस क्षेत्र में अनर्थ तथा अनर्गल स्थापनाएँ मण्डित न होने पाएँ ।
जिनवाणीके अन्तर्गत देशका ज्ञान-विज्ञान प्रायः अन्तर्भुक्त है । उसे सम्यक् अध्ययन-अनुशीलन द्वारा बहुविध बोध विज्ञान विकासको प्राप्त होगा । अस्तु, इस प्रकारके अनुसंधानात्मक अध्ययन-अनुशीलनकी उपयोगिता वस्तुतः असंदिग्ध है ।
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