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बाबजूद भी इनके स्थूल एवं अनुभवगम्य ऊष्मागुणके कारण इन्हें एक ही तेजोरूपमें समाहित किया गया है । इस युग में प्रभा [सूर्य और दीप प्रकाश ], उद्योत एवं अन्धकारमें उष्णताके सामान्य अनुभवगम्य न होनेसे इन्हें तैजस्कायिकोंमें समाहित नहीं किया गया है जबकि इन्हें भी इसमें समाहित किया जा सकता था । सम्भवतः इसीलिये प्रभा आदि तीन रूप तैजस्कायिक नहीं बताये गये हैं । फलतः ये निर्जीव । फिर भी, उन्हें पौद्गलिक और कणमय तो माना ही गया है । आधुनिक दृष्टि से इन भेदोंके विषयमें यह कहा जा सकता है कि ये ऊष्मा, प्रकाश या विद्युत् ऊर्जाओंके विभिन्न स्रोत हैं स्वयं ऊर्जाएँ नहीं हैं । ऊष्मा चाहे किसी भी स्रोतसे क्यों न उत्पन्न हो, ऊष्माकी प्रकृति एकसमान होगी, विभिन्न विद्युत् स्रोतोंसे उत्पन्न विद्युत् ऊर्जाकी प्रकृति एकसमान होगी । इसी प्रकार प्रकाशके विषयमें मानना चाहिये ।
ऊर्जाओं कणमयताकी धारणा जैन और वैशेषिकोंमें समानरूपसे पाई जाती है। न्यूटन युगमें वैज्ञानिक भी इन्हें तरल या कणमय मानते थे । यह तो उन्नीसवीं सदीके उत्तरार्द्ध में ही मत स्थिर हुआ कि ये तरंगात्मक ऊर्जाएँ हैं । बीसवीं सदी में इन्हें तरंगणी प्रकृतिका सिद्ध किया जा चुका है। अतः इनकी शुद्ध कणमयताकी शास्त्रोक्त धारणा अब संशोधनीय बन गई है ।
प्रकाश - सम्बन्धी कुछ घटनाएँ
प्रकाशके विषयमें जैन ' ने दो शास्त्रीय प्रकरणों पर और ध्यान आकृष्ट किया है जो वर्तमान परिप्रेक्ष्य में विचारणीय बन गये हैं । प्रथम प्रकरण में चक्षु द्वारा पदार्थके देखने की प्रक्रिया समाहित है । शास्त्रीय मान्यताके अनुसार चक्षु पदार्थोंके रूप एवं आकार आदिका ज्ञान कराने में आलोक या सूर्यप्रकाशकी सहायता नहीं लेती। अमर और जैनने चक्षु द्वारा पदार्थोंके देखने और ज्ञान करानेकी वैज्ञानिक प्रक्रियाका विवरण देते हुये बताया है कि सामान्य जनको दृश्य परिसरके प्रकाशके बिना पदार्थ दृष्टिगोचर नहीं होते । जैन दार्शनिक सूर्य किरणें मान कर भी उन्हें दर्शन प्रक्रियामें उपयोगी नहीं मानते । वस्तुतः चक्षुका पदार्थ सम्पर्क किरणोंके माध्यमसे ही होता है । जैसे कैमरा बिना पदार्थ और प्रकाशके चित्र नहीं खींच सकता, वैसे आँख भी इन दोनोंके विना रूपज्ञान नहीं करा सकती । यह सही है कि आँख पदार्थ के पास जाकर उसका ज्ञान नहीं कराती, इसलिये उसका अप्राप्यकारित्व स्थूलतः सही हो सकता है लेकिन चक्षु किरणों के माध्यम से पदार्थ के बिना भी उसका बोध नहीं करा सकती, अतः उसका पदार्थसे किसी न किसी प्रकार सम्पर्क होता ही है । अतः अप्राप्यकारित्वको परोक्ष प्राप्यकारित्व या ईषत् प्राप्यकारित्वके रूपमें लेना शास्त्रीय अर्थको वैज्ञानिक बना देगा, यह सुझाया गया है ।
इसी प्रकार द्वितीय प्रकरणमें अन्धकार, छाया और वर्षाकी चर्चा है । अन्धकार तो प्रकाशका ही एक रूप है जिसका परिसर दृश्य परिसरसे भिन्न होता है । उल्लूकी आँखों का लेंस और विविध प्रकारके नवीन केमरे प्रकाशके इसी परिसर में काम करते हैं । चूँकि यह प्रकाशका ही एक रूप है, अतः अन्धकारकी कणमयता भी स्पष्ट है । लेकिन इसे प्रकाशविरोधी कहना स्थूल निरीक्षण ही कहा जा सकता है । यह बताया गया है कि छाया प्रकाशको रोकनेवाले पदार्थोंसे बनती है । इसकी प्रकृति परावर्तक तलोंकी प्रकृति पर निर्भर करती है । यह भी पुद्गलका ही एक रूप है । वस्तुतः वर्णादिविकार परिणत छाया (दर्पण प्रतिबिम्ब या छाया ) अवास्तविक प्रतिबिम्बका एक रूप है जबकी अबतक लेंससे बने प्रतिबिम्ब वास्तविक होते हैं । वास्तविक प्रतिबिम्बोंका उदाहरण शास्त्रोंमें नहीं मिलता, शायद उस युगमें अवतल लेंसोंकी जानकारी न हो । साथ ही, हरिभद्रने जिन छाया पुद्गलोंका दर्पणमें प्रवेश बताया है, वे वस्तुतः प्रकाश किरणें हैं । इन किरणोंके सरल पथ गमनकी प्रवृत्तिके कारण ही छाया और प्रतिबिम्ब बनते हैं । प्रकाशकी
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