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हैं। यदि एक योजन ४००० मीलका माना जाता है, तो चन्द्र, सूर्य आदि प्रमुख ग्रहोंका विवरण सारणी १ के अनुसार प्राप्त होता है। इसी सारणीमें आधुनिक मान्यताओंका भी विवरण दिया गया है। इससे दोनों मान्यताओंकी विसंगति स्पष्ट है । बीसवीं सदीका मस्तिष्क इस विसंगतिकी व्याख्या भी चाहता है । सर्य-चन्द्रकी गति
___शास्त्रों के अनुसार जम्बूद्वीपकी परिधि लगभग ३१६२२८ योजन है । इसे सामान्य भागमें व्यक्त करनेपर यह १२६४९१२००० मील होती है । यदि सूर्यचन्द्र इसे ४८ घंटे में पूरा करते हैं, तो इनकी गति २,६३,५१,९१६ मीलघंटा प्राप्त होती है, को १-२५ x १०६ मीटर प्रति सेकेण्डके लगभग बैठती है। इतनी तीब्र गतिसे गतिशील बिम्बोंके ऊपर बने हुए भवनों और जिन मन्दिरों की स्थितिकी कल्पना ही की जा सकती है जब हमें वह ज्ञात होता है कि कुछ सौ मीलकी रफ्तारका तूफान ही भूतल पर प्रचण्ड विनाशलीला उत्पन्न करता है। आज कल उपग्रह विद्याका पर्याप्त विकास हो गया है। इसे ३५००० कि०मी० की रफ्तारसे छोड़नेपर ही यह पृथ्वीके क्षेत्रसे बाहर जा सकता है। परन्तु इस रफ्तारसे चलते समय परिवेशी वायुके सम्पर्कके कारण यह पर्याप्त उत्तप्त हो जाता है। यदि इनके निर्माणमें ऊष्मारोधी तथा अगल्य पदार्थोंका उपयोग न किया जाय, तो ये जलकर राख हो जावें । चन्द्र भी यदि इसी प्रकार वायुमण्डलमें इस गतिसे भ्रमण करे, तो उसकी भी यही स्थिति सम्भावित है। मझे लगता है कि इन मान्यताओंका आधार सम्भवतः ऊपरी क्षेत्रोंमें वायुकी उपस्थिति सम्बन्धी जानकारीको अपूर्णता ही रही होगी। फिर भी, इन बिम्बोंकी गतिकी कल्पना स्वयंमें एक उत्कृष्ट चिन्तनके तथ्यको प्रकट करती है। उष्णता और आतप
जैनाचार्योंने उष्णता तथा आतपका विवेचन अलग-अलग किया है। उन्होंने अग्निमें उष्णता मानी है और सूर्यमें आतप माना है। उष्ण वह है जो स्वयं गरम हो और आतप वह है जो दूसरोंको गर्म करे। यह भेद सम्भवतः आचार्योंके प्रकृति निरीक्षणका परिणाम है। उष्ण पदार्थका यह नियम है कि उससे जितनी दूर होते जाते हैं, उष्णताकी प्रतीति कम होती जाती है पर सूर्यकी स्थिति इससे बिलकुल भिन्न प्रतीत होती है। सामान्यतः पहाड़ोंपर उष्णता कम प्रतीत होती है जो भूतलकी अपेक्षा सूर्यसे कुछ समीपतर है जव कि भूतलपर वह अधिक होती है । फलतः यह माना गया कि आतप वह है जो स्वयं तो उष्ण न हो पर दूसरोंकी उष्णता दे । सूर्य स्वयं उष्ण नहीं है, इसलिये उसके समीपकी ओर जानेपर गरमी क्यों बढेगी? यही कारण है कि अनेक जैन कथाओंमें मनुष्य सूर्य के पाससे गुजरकर ऊपर चला जाता है, पर उसका कुछ नहीं होता।
इस प्रकरणमें भी तथ्योंके निरीक्षणकी कल्पनात्मक व्याख्या की गई है । वस्तुतः आधुनिक मान्यताके अनुसार सूर्य एक उष्ण पिण्ड है । उसकी उष्णता भूतलपर आकर संचित होती है, वायुमण्डलमें नहीं । अतः ऊपरी वायुमण्डलकी उष्णता भूतलकी तुलनामें कम होती जाती है। जैनोंके भूगोल सम्बन्धी कुछ अन्य तथ्य
जैनाचार्यो में प्राकृतिक घटनाओंके निरीक्षणका तीक्ष्ण सामर्थ्य था। उन्होंने अनेकों प्राकृतिक घटनाओंका सूक्ष्म निरीक्षण किया और उनकी व्याख्याके प्रयत्न किये। पर प्रयोग कलाके अभावमें ये व्याख्यायें पौराणिक आख्यानोंके समकक्ष ही प्रतीत होती हैं। मैं नीचे कुछ ऐसी ही घटनाओंकी भी चर्चा कर रहा हूँ।
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