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(अ) समुद्रके बीचमें उठा हुआ पानी
___ जैन आचार्योंने समुद्रोंका अच्छा निरीक्षण किया। उन्होंने देखा कि एक किनारेसे देखनेपर समुद्रका पानी कुछ ऊँचा होता है और बादमें ढलता-सा लगता है। यह पृथ्वीकी गोलाईका चिह्न है। इस ऊँचे भागको शास्त्रोंमें यह कहकर सिद्ध किया है कि समुद्र का पानी बीच में अनाजकी ढेरीकी तरह १६००० योजन ऊँचा है। इस ऊँचाईको २४००० वेलंधर नागदेवता स्थिर रखे रहते हैं। समुद्र में तूफान आनेका निरीक्षण भी आचार्योने किया और उसका कारण यह बताया कि समुद्र के नीचे कुछ पाताल हैं जिनके नीचे वायु कुमार जातिके देव और देवांगनायें खेलकूद करते हैं। इनकी क्रीड़ाके कारण ही समुद्रके बीचमें तूफान आता है और पानी ऊँचा-नीचा होता है। इस वर्णनमें एक महत्त्वपूर्ण तथ्यकी ओर और संकेत किया गया है। यह बताया गया है कि केवल लवण समुद्र में ही यह ऊँचाई दिखती है, उत्तरवर्ती समुद्रोंमें जल समतल ही रहता है।
इन तथ्योंकी वर्तमान व्याख्या पथ्वीकी गोलाई और चन्द्रकी आकर्षण शक्तिके आधारपर की जाती है।
(ब) शास्त्रोंके अनुसार भरतक्षेत्रके मध्यमें पूर्व पश्चिममें फैला हुआ विजया पर्वत है जो २५ योजन ऊँचा या वर्तमान एक लाख मील ऊँचा माना जाता है। इस विजयापर दस योजन ऊँचाईपर मनुष्य और विद्याधर रहते हैं । वे वहाँ कृषि आदि षट् कर्म करते हैं। वर्तमानमें तो केवल ५-५० मील ऊँचा हिमालयकी उच्चतम पर्वत है, उससे ऊँचे पर्वतों और उनपर रहनेवाले विद्याधरोंकी कल्पना पौराणिक ही माननी चाहिये।
यह भी बताया गया है कि इसी विजयार्धकी गुफाओंसे समुद्रकी ओर जानेवाली गंगा, सिन्धु नदियाँ निकलती हैं । भाग्यसे, ये नदियाँ तो आज भी हैं पर विजयार्ध अदृश्य हैं । इसीके शिखरपर स्थित सिद्धायतन कूटपर २ मील ऊँचा, २ मील लम्बा और एक मील चौड़ा जिन मन्दिर बना हुआ बताया गया है। वर्तमान जगतके न्यूयार्क स्थित सर्वोच्च भवनकी तुलनामें जिन मन्दिरका यह भवन काल्पनिक और पौराणिक ही माना जायगा।
(स) जैन भगोलके आधारपर छह माहके दिन और रात वाले क्षेत्रों, उल्काओं, पुच्छलतारों तथा ज्वालामुखीके विस्फोटोंकी उपपत्ति भी संगत नहीं हो पाती ।
इसी प्रकार अन्य अनेक विवरणोंका भी उल्लेख किया जा सकता है ।
उपसंहार
उपरोक्त विवरणमें मैंने कुछ भूगोल तथा ज्योतिर्लोकके प्रमुख ग्रहोंके सम्बन्धमें शास्त्र वर्णित मान्यतायें निरूपित की हैं और यह बताया है कि ये मान्यतायें आजके वैज्ञानिक निरीक्षणे एवं व्याख्याओंसे मेल नहीं खातीं। परीक्षा प्रधानी जैन विद्वानोंको इस ओर ध्यान देना चाहिये और शास्त्रोंकी प्रमाणिकताको बढ़ानेमें योगदान करना चाहिये। मेरे इस सुझावका आधार यह है कि जैनाचार्यो में प्रकृति निरीक्षणकी तीक्ष्ण शक्ति थी। वे विज्ञानके आदिम युगमें उसकी जैसी व्याख्या कर सके, उन्होंने की है। पर वही व्याख्या वर्तमान प्रयोग-सिद्ध और तर्क-संगत व्याख्याकी तुलनामें यथार्थ मानी जाती रहे, यह जैनाचार्योकी वैज्ञानिकताके प्रति अन्याय होगा। इन आचार्योंके निरीक्षणों और वर्णनोंका तत्कालीन युगमें मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ता रहा है । इसलिये आज भी ये वर्णन धर्मशास्त्रके अंग बने हुये हैं । इन्हें वैज्ञानिक नहीं माना जाना चाहिये और इस आधारपर धर्म और विज्ञानको टकरानेको स्थितिमें न लाना चाहिये। अनेक विद्वान
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