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काष्ठकला के लिये सागौन और काली लकड़ी मुख्यतः काम आती है। इन लकड़ियों को 'सोना' कहा जाता है। लकड़ियों के विषय में परिमाणमंजरी तथा बृहत्संहिता में अच्छे विवरण मिलते हैं। इस कला के विकास में अनेक प्रकार के पदार्थ और उपकरण काम आते हैं।
काष्ठकला के उदाहरण के रूप में मन्दिर सर्व प्रथम आते हैं। ये दो प्रकार के होते है-घरेलू देरसरा और मन्दिर । घरेल देरसरों का रूप घर में बने हए एक लघुकाय पूजास्थल के रूप में होता है । मन्दिरों में यह कला उनके मंडपों में उत्कीर्णन के रूप में पाई जाती है जहाँ पौराणिक या प्रतीकात्मक कथायें काष्ठ में उत्कीणित की जाती हैं । नेमनाथ का वैराग्य, तीर्थंकरों का चरित्र तथा दिक्पाल, सुरसुन्दरी, किन्नरी आदि देवियों का उत्कीर्णन पर्याप्त मात्रा में पाया गया है । अहमदाबाद के हज पठैल पोल का शान्तिनाथ देरसरा (1390 ई०) काष्ठकला की दृष्टि से एक उत्तम उदाहरण है। इसी प्रकार के अनेक देरसरे इस नगर में और भी पाये जाते हैं।
पाटन, पालीताणा, रतनपुर आदि में घर-देरसरे पाये जाते हैं। इसका एक नमूना राष्ट्रीय संग्रहालय, दिल्ली में रखा है जो 16-17 वीं सदी का है। इसके मण्डप में सोलह अप्सरायें उत्कीणित है। प्रिंस आफ वेल्स संग्रहालय, बम्बई तथा बड़ौदा के संग्रहालय में भी अनेक काष्ठकला के नमूने पाये जाते हैं । न्यूयार्क के मेट्रोपोलिटन म्यूजियम में 1594 ई० में बने एक जैन मन्दिर का भव्य नमूना प्रदर्शित है जिसे भारत से 1890 ई० में ले जाया गया।
काष्ठकला का दूसरा रूप मूर्तियों के निर्माण के रूप में पाया जाता है। यह कहा जाता है कि भगवान् महावीर के जीवन काल में ही उनकी चन्दन की मूर्ति बनाई गई थी। लेकिन लकड़ी की मूर्तियों का बहुत प्रचलन नहीं हो सका, ऐसा लगता है। इसके अनेक कारण संभावित हैं। लेकिन काष्ठीय स्थापत्य के अनेक नमूने संग्रहालयों में मिलते हैं । इनकी निम्न विशेषतायें पाई गई हैं
(i) इन कृतियों का आकार व विस्तार, पत्थर की तुलना में, लघुत्तर होता है । (ii) इनका उत्कीर्णन इस प्रकार होता है कि कृति का दूसरा (पृष्ठ) पार्श्व अग्रपार्श्व के समान
नहीं हो पाता। (iii) ये कृतियाँ प्रायः समीप होती हैं । (iv) ये प्रायः गुजरात और राजस्थान में ही पाई जाती है ।
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