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में इन चरणों को निरीक्षण, परीक्षण या विश्लेषण, वर्गीकरण एवं संप्रसारण कहा जा सकता है । इस प्रत्यक्ष प्राप्त ज्ञान को 'श्रुत' में निबद्ध किया जाता है । आज का 'श्रुत' प्राचीन विद्वानों के ज्ञान और अनुभव को निरूपित करता है । इनमें अनेक उत्तरवर्ती श्रुतों में अनेक प्रकरणों में भिन्न-भिन्न मत एवं नयी चीजें पाई जाती हैं । इस प्रकार श्रुत में पर्याप्त संशोधनीयता दृष्टिगोचर होती है । इनसे प्रकट होता है कि ज्ञान एक निरन्तर वर्धमान प्रवाह है।
वैज्ञानिक अध्ययन भी इन्द्रिय और मन के द्वारा उपरोक्त अनुरूपी चरणों में किया जाता है। इन्द्रिय ज्ञान के तो शास्त्रों में ३३६ भेद बताये हैं। अतः ज्ञानप्राप्ति की विधियों की समरूपता से शास्त्रीय विवरणों की आधुनिक विवरणों से तुलना पर्याप्त मनोरंजक विषय है। यहाँ यह उल्लेख भी आवश्यक है कि ज्ञान प्राप्ति के साधनों में नैयायिकादि दार्शनिकों ने जहाँ वस्तु, इन्द्रिय और प्रकाश आदि अनेक कारण माने हैं. वहीं जैनों ने इन्हें प्राथमिक (आत्मा) और द्वितीयक कारणों के रूप में वर्गीकृत कर अपनी गहन अन्तर्दृष्टि का परिचय दिया है।
तव्य की परिभाषा : सामान्य और विशेष गुण-शास्त्रों में द्रव्य को अनेक नामों से निरूपित किया गया है। छह द्रव्यों में यहाँ अजीब-पुद्गल की चर्चा ही मुख्यतः की गई है क्योंकि वह दृश्य होता है और उसका अध्ययन इन्द्रियों एवं यंत्रो से संम्भव है। इसमें मुख्यतः दो प्रकार के गुण पाये जाते हैं
य और विशेष । सामान्य गणों की संख्या आठ या ग्यारह बताई गई है। ये सभी मर्त-अमूर्त द्रव्यों में पाये जाते हैं । विशेष गुणों की संख्या सोलह बताई गई है। इनमें से अजीव में स्पर्श, रस, रूप, गन्ध, संस्थान
और अचेतना-छह विशेष गुण पाये जाते हैं। प्रस्तुत निबंध में अनेक सन्दर्भो के आधार पर उपरोक्त सामान्य और विशेष गुणों का तुलनात्मक समीक्षण और परीक्षण प्रस्तुत किया गया है।
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