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कलश और कपोतिकाके नामोंसे पहचाना जाता है (चित्र २)। इन पट्टि काओंमेंसे गजपीठ और नरपीठकी पट्रिकायें विशेष महत्त्व की हैं जिनका प्रचलन गुजरात और पश्चिम राजस्थानमें सोलंकी राजाओंके स्थापत्यमें बहुतायतसे देखा जा सकता है। मन्दिरके पीठ भागपर राजपीठका प्रतिरूपण राष्ट्रकूट कालीन ऐलोराके कैलाश मन्दिरका स्मरण दिलाता है जिसमें इस अलंकरणका पूर्वरूप देखा जा सकता है। नरपीठ पट्टिकापर अनेकों धार्मिक और लौकिक दृश्योंका चित्रण किया गया है। इसी पट्टिकापर संगीत, नृत्य, रतिचित्रोंके साथ समुद्रमन्थन ऊपाख्यान तथा रामायणके दृश्योंका अंकन भी सफलतासे किया गया है। एक दृश्यमें बालि-सुग्रीवकी दून्दयद्धमें रत दिखाया गया है जिनके साथ धनुषपर शर सन्धान करते हुये राम तथा उनके पीछे लक्ष्मणको अंकित किया गया है (चित्र ३)। यह अंकन जहाँ एक ओर रामायण कथाकी लोकप्रियताका साक्ष्य प्रस्तुत करता है, वहाँ दूसरी ओर व्यापक धार्मिक सहिष्णुताकी भावनाका परिचय देता हैं जिसके फलस्वरूप जैनमन्दिरमें इसका समावेश हो सका है। कुम्भभागपर बनी रथिकाओंपर जैन यक्षियोंकी प्रतिमायें अपने विविध रूपोंमें उत्कीर्ण की गई हैं।
चित्र ३. बालि-सुग्रीव युद्ध, रामायणका दृश्य
वेदीबन्धके ऊपर मन्दिरका भित्तिभाग, जिसे स्थापत्य ग्रन्थोंमें जंघाभाग कहा जाता है, स्थित है, जिसका निचला भाग मंचिकासे आरम्भ होकर ऊपर कपोतिकामें समाप्त होता है । जंघाभाग पर चारों ओर अलंकृत रथिकायें हैं जिनमें जैन-देवी देवताओं तथा भंगिमापूर्ण अप्सराओंकी मूर्तियाँ देखी जा सकती हैं। मूल प्रसादके बचे हुये कर्ण भागों (कोनों) पर अष्ट दिग्पालों (इन्द्र, अग्नि, यम, निऋति; वरुण, वायु, कुबेर और ईशान) का प्रतिरूपण मिलता है। दुर्भाग्यवश मन्दिरका मुख्य शिखर पूर्णतया ध्वस्त हो चुका है, इसलिये बचे हुये अवशेषोंके माध्यमसे उसकी भव्यताका केवल अनुमान लगाया जा सकता है । काय उत्तरकी ओर मन्दिरके मुख्य द्वारके सम्मुख स्तम्भों पर आधारित मुखमण्डप और तीन भागोंमें विभाजित त्रिमण्डपका निर्माण किया गया है जिसके स्तम्भोंका संयोजन और मनोहर अलंकरण विशेष
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