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इस भण्डारमें कागजके अनेक महत्त्वपूर्ण सचित्र ग्रन्थ सुरक्षित हैं जो १५वीं शताब्दीकी चित्रकलाके अन्यतम उदाहरण हैं । इनमें उल्लेखनीय वि० सं० १४२९ का पाण्डवचरित्र महाकाव्य (ग्रं० सं० ४१९), वि० सं० १५६२ का रौप्याक्षरी सचित्र कल्पसूत्र (ग्रं० सं० ४२०) जिसमें २७३ चित्र हैं तथा कालिकाचार्य कथा (सं० ४२५) आदि है । पुस्तकोंको सुरक्षित रखने हेतु यहाँ अनेक सचित्र काष्ठ पट्टिकाओं तथा चित्रित मंजूषाओंका भी सुन्दर संग्रह है। काष्ठ पट्रिकाओं पर तीर्थंकरोंके जीवन प्रसंग तथा पशु जगत्का भव्य अंकन है जिसमें एक पर जिराफका चित्रण महत्वपूर्ण है। थारू शाह ज्ञान भण्डारमें वि० सं० १६७३ का चमड़ाका सचित्र डिब्बा उल्लेखनीय है। राजस्थानके प्रायः सभी महत्त्वपूर्ण जैन मन्दिरों व उपासरोंमें ग्रन्थ भण्डार हैं । जयपुर, नागौर, अजमेर व बीकानेरके जैन ज्ञान भण्डार अपने समृद्ध संग्रहके लिये पर्याप्त प्रसिद्ध है।
राजस्थानके विभिन्न राजपूत शासकों, ठिकानेदारों व श्रेष्ठियोंने भी हस्तलिखित ग्रन्थोंके संग्रह व संरक्षणमें महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। बीकानेरकी अनुप संस्कृत लाइब्रेरी, जोधपुरका पुस्तक प्रकाश तथा उदयपुरका सरस्वती भण्डार वहाँके राजाओंके साहित्य प्रेमके जीते जागते स्मारक हैं। विद्वानोंके परिश्रमके परिणामस्वरूप इन संग्रहोंके अनेक अलभ्य व महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ प्रकाशित हो चके हैं। उनकी सूचियाँ भी प्रकाशित हो चुकी हैं। उनमें अनेक सचित्र ग्रन्थ भी उपलब्ध हैं । सरस्वती भण्डार, उदयपुर में मेवाड़ शैलीमें चित्रित आपरामायण, गीतगोविन्द, भागवत आदि, पुस्तक प्रकाश, जोधपुर में मारवाड़ शैलीमें महाराजा मानसिंहके राजत्वमें चित्रित ढोलामारु, नाथचरित्र, दुर्गाचरित्र, शिवपुराण, शिवरहस्य, रामायण आदि एवं अनूप संस्कृत लायब्रेरी, बीकानेर में बीकानेरशैलीमें चित्रित मेघदूत, रसिकप्रिया, भागवत पुराण आदि कला जगतकी सांस्कृतिक निधियाँ हैं। अनुप संस्कृत लाइब्रेरीमें १२००० हस्तलिखित प्रतियाँ एवं लगभग ५०० गटके विद्यमान हैं। व्यक्तिगत संग्रहके रूपमें श्री अगरचन्द्रनाहटाका बीकानेर स्थित, अभयजैन पुस्तकालय, ऐतिहासिक महत्त्वकी पाण्डुलिपियों, जैन आचार्यों एवं यतियोंके पुत्र, राजाओंके पत्र, खास, रुक्के, सं० १७०१ से अब तकके प्रायः सभी वर्षोके पंचागोंका विरल संग्रह है। यहाँ लगभग २००० हस्तलिखित ग्रन्थ संग्रहीत हैं जिनमें कुछेक ऐतिहासिक महत्त्वके ग्रन्थोंका प्रकाशन भी हो चुका है, यथा पिंगलसिरोमणि, क्याम खां रासो, जसवंत उद्योत आदि ।
राजस्थान निर्माणके पश्चात् ही राजकीय स्तरपर हस्तलिखित ग्रन्थोंके संग्रह, संरक्षण, वर्गीकरण शोध व प्रकाशन आदिकी ओर ठोस कदम उठाया गया और इसका मूर्तरूप है जोधपुर स्थित राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान जिसके लगभग १७ वर्षों तक सम्मान्य निदेशक सुप्रसिद्ध पुराविद् मुनि जिनविजयने रहकर इस संस्थाको अपने रचनात्मक एवं सर्जनशील कृतित्वसे जो ख्याति प्रदान की, वह सर्वविदित है। इस प्रतिष्ठानकी शाखायें उदयपुर, बीकानेर, चित्तौड़, जयपुर, अलवर कोटा एवं टोंकमें विद्यमान हैं। विभागमें एक लाखसे ऊपर पाण्डुलिपियोंका संग्रह है। यहाँ एक हजारके लगभग प्राचीन ताडपत्रीय ग्रन्थ तथा उतने ही दुर्लभ ग्रन्थोंकी फोटोकापियाँ तथा अन्य ज्ञान-भण्डारोंमें संग्रहीत महत्त्वपूर्ण हस्तलिखित ग्रन्थों की प्रतिलिपियोंका विशाल संग्रह है। शोधार्थियोंको उनकी माइक्रोफिल्म, फोटोकापी व प्रतिलिपियाँ उपलब्ध करानेका भी अध्ययनार्थ प्रावधान है। ग्रन्थोंकी सुरक्षाकी दृष्टिसे दो वातानुकूलित संयंत्र भी हालमें लगाये गये हैं तथा वातानुकूलित तलगृह बनानेकी भी योजना विचाराधीन है। 'पुरातन ग्रन्थमाला' के रूपमे १२४ महत्वपूर्ण ग्रन्थोंका प्रकाशन किया गया है। प्रतिष्ठानकी टोंक शाखाकी अरबी, फारसी, उर्दूकी पाण्डुलिपियोंको एकीकृत संग्रहका रूप देनेकी योजना अध्येताओंके लिए लाभप्रद सिद्ध होगी और राजस्थानमें ज्ञानके ये विखरे खजाने हमारी संस्कृति व इतिहासको उजागर करने में सहायक सिद्ध होंगे, इसमें सन्देह नहीं।
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