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बुन्देलखण्डमें जैन-धर्मके प्राचीनतम प्रतीक
चन्द्रभूषण त्रिवेदी
भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण, नई दिल्ली बुन्देलखण्डको प्रकृतिने बड़े ही सुन्दर ढंगसे संजोया है। इस क्षेत्रमें यहाँके शैल-गिरि, गहन-वन और सरिताओंने धर्म एवं संस्कृतिमें महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। यह ब्राह्मण, बौद्ध एवं जैन धर्मोकी जहाँ तपोभूमि है, त्रिवेणी कई सहस्र वर्ष पूर्वसे अबाध गतिसे प्रवाहित होती रही है। विन्ध्य शृखलाओंके मध्यमें बसे इस भूमिखण्डमें विभिन्नताके साथ ही एकरूपताका विराट् दर्शन होता है। यह तपोभूमि पावन वेत्रवती ( बेतवा ), यमुना, दशार्ण ( धसान ), उर्वशी ( ओर ), तमसा ( टमस ), शुम्तिमती ( केन ) सहस्रों वर्षसे जन-मानसको प्रेरित करती हुई पतित-पावन गंगामें मिल जाती हैं। विदिशा तीर्थकर शीतलनाथजीकी जन्मस्थली रही है। मौर्यकालके उपरान्त गुप्तकाल तथा मध्यकालमें यहाँ प्रतिहार, कलचुरि एवं चन्देल नृपोंके कालमें जैनधर्म पूर्ण रूपसे पल्लवित एवं पुष्पित हुआ। प्रमाण-स्वरूप आज भी संभवतः ऐसा कोई ग्राम न हो जहाँ जिन-अवशेष उपलब्ध न हों ।
पुरातत्वीय प्रमाणोंके आधारपर यह कहा जा सकता है कि ब्राह्मण एवं बौद्ध धर्मोसे पूर्व जैन-धर्ममें सगुणोपासना प्रारम्भ हुई थी। इस सन्दर्भमें मोहँजोदड़ोंसे प्राप्त एक सेलखड़ीकी मुद्रा तथा हड़प्पासे प्राप्त लाल पाषाणका एकबन्ध उल्लेखनीय है । मुद्राके दृश्यका अंकन इस प्रकारका है।
एक श्रवण, कायोत्सर्ग मुद्रामें आच्छादित वनमें प्रदर्शित है। वृषभके निकट एक गृहस्थ अंजलिमुद्रामें हैं । इस पंक्तिके नीचे सात पुरुष कायोत्सर्ग मुद्रा में है ।
इन कलाकृतियोंको निश्चित रूपसे जैनधर्मसे निरूपित करना कठिन है। जब तक कि सिन्धु लिपिका पठन न किया जा सके। इसके अतिरिक्त इतने वर्षोंके गहन अध्ययनके फलस्वरूप भी जिन कलात्मक वास्तु एवं शिल्पीय कृतियोंको मूल भारतीय कला एवं धर्मसे पृथक् करना अत्यन्त कठिन है। इनके मूल सिद्धान्त वेदोंमें निहित हैं।
जिन आख्यानोंमें भगवान महावीरकी समकालीन प्रतिमाका उल्लेख मिलता है । कहा जाता है कि वीतमयपतन नगर (जिसकी भौगोलिक स्थिति अस्पष्ट है) के नृपति उद्दामनकी महिषी चन्दन काष्ठसे निर्मित तीर्थकरकी पूजा करती थी। इसी आख्यानका प्रतिरूप भगवान बुद्धके समकालीन कौशम्बीके राजा उदयनसे सम्बन्धित है । ऐसा ही उल्लेख दशपुर नगर (मन्दसौर) के सम्बन्धमें जीवन्तस्वामीकी प्रतिमाका उल्लेख है। इन आख्यानोंका समीकरण पुरातत्वीय सन्दर्भमें नहीं हो सका है। सम्भवतः उस कालमें प्रतिमायें काष्ठ ही की निर्मित की जाती थीं।
पुरातत्वीय सन्दर्भ में उल्लेख चेदि राजवंशके महामेघवाहन कुलके तृतीय नृपति खारवेल (प्रथम शती ई० पू०) के उदयगिरि-खण्डगिरिकी गुफाओंमें उत्कीर्ण लेखमें अंकित है। उसके अनुसार खारवेल नन्दराज द्वारा बलपूर्वक ले जाई गई तीर्थकर प्रतिमाको पुनः ले आया था। इसके अतिरिक्त पटना संग्रहालयमें
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