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स्तम्भोंके अलंकारणोंमें इनका बहुलतासे प्रयोग है और महावंशमें इन्हें चतुष्पद पंक्ति कहा गया है । स्तूपकी चन्द्रशिलाओंपर, अनुराधापुरके गुप्तकालीन स्तूपोंकी चन्द्रशिलाओंपर, १८वीं शतीके राजस्थानी चित्रमें ( जो इस समय दिल्ली संग्रहालयमें है ) और १९वीं शतीके बंगालसे प्राप्त एक कन्थे ( इस वक्त भारत कला भवनमें ) आदिपर इस चतुष्पद पंक्तिका सुन्दर अंकन है । कहते हैं, जहाँ न पहुँचे रवि, वहाँ पहुँचे कवि । अतः बौद्ध कल्पनामें ये चार पशु अनवतप्त सरोवरोंके चार द्वारोंके रक्षक हैं जहाँसे चार महानदियोंका उद्गम है। वाल्मीकि रामायणमें इन्हें रामके अभिषेकके लिये एकत्र मांगलिक द्रव्योंमें गिना जाता है। केशवदासने (१७वीं शती ) रामके राजप्रसादके चार द्वारों पर इनका उल्लेख किया है । डा. वासुदेवशरण अग्रवालने अपनी पुस्तक चक्रध्वज में लगभग पचास अवतरण और उल्लेख दिये हैं। आपके चिन्तनके अनुसार लोक भावनामें इन चारों पशुओंको पवित्र समझा जाता था और इनके पीछे जैन, बौद्ध और ब्राह्मण-इन तीनों महान धर्मोंकी मान्यताका भी बल था ।
शुंगकालीन ( १८४-७२ ई० पू० ) भरहुत स्तूपकी तोरणवेदिकापर अश्वरथ अंकित है । इस काल में पशुओंकी आकृतियाँ दो प्रकारकी प्राप्त हुई हैं एक स्वाभाविक और दूसरी कल्पित जैसे, आकाशचारी अश्व अर्थात् सपक्ष अश्व । उड़ीसाकी खण्डगिरी-उदयगिरीकी गुफायें भी इसी कालकी हैं। इनमें रानीगफाकी शोभापट्टीमे उत्कीर्ण सात चित्र राजेन्द्रलाल मित्र कृत उड़ीसाके प्राचीन अवशेष, खण्ड २ नामक ग्रन्थमें प्रकाशित किये गये हैं । इन चित्रोंमें दृश्य चारमें पट्टके पहले भागमें तीन व्यक्ति, एक अश्व, उसे थामे हुए एक सूत है । राजाकी मृगयाका दृश्य-दुष्यन्त-शकुन्तला कथाका दृश्य इस रोचक दृश्यका सारा रूपक राजा दुष्यन्तका ऋषि कण्वके आश्रममें आगमन, शकुन्तलाको देख उसपर मोहित होना है । गणेश गुटकामें पर्याण और आभूषणोंसे सुशोभित घोडेका दृश्य भी अंकित है। मञ्चपुड़ी गुफामें तोरणपर अलफ मुद्रामें अश्वारोही मत्तियाँ उत्कीर्ण है। इसीकी अनुकृतिपर आगे चलकर व्यालतोरणकी मुत्तियाँ बनने लगी जिसका उदाहरण सारनाथमें मिलता है। अनन्त गुफामें सूर्यकी एक विशिष्ट मूत्ति है जो अपनी दो पत्नियोंके साथ चार घोडोंके रथपर आरूढ़ है।
शुगकालके आरम्भिक काल (लगभग दूसरी श० ई० पू०) का केन्द्र भाजा बना। भाजाके बिहारके मुखमण्डपके पूर्वी छोरके प्रवेशद्वारके दोनों ओरकी मूत्तियोंमें एक ओर बाईं तरफ एक राजा चार घोड़ोंके रथ पर सवार है। पीछे चँवर और छत्र लिये दो अनुचर स्त्रियाँ भी हैं। पीतलखोराकी गुफा नं० ४ में दाहिनी ओर हाथीके बराबर एक अश्वारोहीकी काय परिमाण मूर्ति पर दानदाताका नाम खुदा है। यह दूसरी शताब्दीकी मालूम पड़ती है । बेडसाकी गुफाओंके स्तम्भों पर हयसंघाटकी मूर्तियाँ हैं ।
पेल्लरूनदीके तट पर स्थित जग्गयपेटके महास्तूपके एक पादुकापट्ट पर सुसज्जित अश्वकी आकृति उत्कीर्ण है।
शक सातवाहन (प्रथम, द्वितीय शती) कालके हैदराबादको कोण्डापुरसे प्राप्त खिलौनोंमें अश्व भी है जो क्योलिन नामक सफेद मिट्टीका बना है ।
पहाड़पुरके फलकों पर बंगालके पशु-पक्षी और वृक्ष-वनस्पतियोंका घनिष्ट अंकन है। उनमें हाथी घोड़ा, चम्पक और कदम्ब इत्यादि हैं।
महास्थान (जिला बोगरा) से भी कुछ फलक प्राप्त हुये हैं जो उत्तर गुप्तकालीन कालके नमूने हैं । एक मिट्टीके पात्र पर चार घोड़ोंके रथ पर बैठा क्ति तीर-धनुषसे मृग झुण्ड पर वाण बरसा रहा है । १६वीं-सत्रहवीं शताब्दीमें पुर्तगाली सिपाही बंगालके भीतरी गाँवमें जाने लगे। स्थानीय कुम्हारोंने
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