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संज्ञाओंके साथ इन्हें विष्णुपत्नी और हरिवल्लभा भी कहा गया है। कमलसे उत्पन्न कमला विष्णकी शक्ति होनेके कारण वैष्णव कला और वैष्णव कल्पनाकी शक्ति बन गयी। विष्णुके चार आयुधोंमें होनेके कारण विष्णके अंकनके साथ में कमल सर्वत्र अंकित हआ है।
कमलप्रिय पद्मप्रिया देवीकी मूर्तियाँ (ई० पू० दूसरी शतीके) साँची और भरहुतके द्वारों और छतोंमें खुदी हुई हैं । भरहुतकी पन्द्रहवीं आकृति गजतक्ष्मी है। जिसके चरण अनेक-दल कमल पर हैं। इसी कमल नालके पाससे दो भारी सी नाले इधर-उधर गई हैं जो पुनः दो भागोंमें बँट गयी हैं। दोनों ओर दो कमल गर्भ पर दो हाथी खड़े हैं और एक-एक कमलका पत्ता बना है। यह गोलाकार कृति है और गोलाकृतिको चार कमल घेरे हुये है। अखिल रूपकी ही एक अन्य ऋचामें इस पद्माके मूल श्रीलक्ष्मीको 'प्रजानो भवसि माता' और 'क्षमा' कहा गया है। क्षमा पृथ्वी है और पृथ्वी हिरण्यगर्भा । कमलको भी हिरण्यगर्भ माना गया है।
बसाढ़से प्राप्त एक मूत्ति में विकसित-अविकसित कई प्रकारके कमल हैं परन्तु प्रतिभाओंके पर लगे हैं । साधारणतया मेसीपोटामियाकी मूत्तियाँ पक्षवती होती हैं जबकि भारतके लिये यह नवीन बात है । मोहेन जो-दड़ो और बौद्ध कलामें कमल
मोहेन जो-दड़ोकी सभ्यताके प्राप्त प्रतीकोंमें से शैव उपासनाका द्योतक लिंग प्रमुख हैं। शिवकी पूरक पार्वती रूपमें वहाँ कमलधारिणी देवीकी मूर्ति पाई जाती है। ऐतिहासिककी दृष्टिसे यह ऋग्वेदके पहलेकी है। मूत्तिके उरोज उन्नत हैं जिससे मातत्वका बोध होता है इसी कारण इसे जगत् जननी कहा गया है । यह प्राप्तकृति सबसे प्राचीन है जिसमें कमलका उपयोग हुआ है। निःसन्देह रूपसे इस बातकी स्वीकार किया जा सकता है कि मातृत्व और कमलका सम्बन्ध अत्यधिक प्राचीन है। यही भावना बादमें ब्रह्म और लक्ष्मीसे सम्बद्ध देखी जाती है जिसके साथ भी प्रतीक रूपमें कमल और सृष्टिीका भाव सन्निहित है।
बौद्धकलामें भी सर्वत्र कमलसे युक्त देवी दृष्टिगोचर होती है। कभी-कभी प्रतीक रूपमें कमल द्वारा ही उसकी सत्ता व्यक्त की गयी है। प्रमुखतः देवीकी संज्ञायें हैं-मद्महस्ता और पद्मरागिणी। महायान बौद्धधर्म में 'पद्मपाणि' बोधिसत्व हैं जिन्होंने बुद्धों की सहायता की। नवीं शताब्दीकी नेपालसे प्राप्त एक प्रतिमाके हाथमें कमल है और यह वरद मुद्रामें है। मृणाल उंगलियोंमें उलझने के बाद भी कुहनी पर आकर टूट गया है। यहाँपर कमल बोधिसत्वकी स्निग्ध-शान्त मनोवृत्ति, असीम दया, अलौकिक देवत्व और पवित्र देवी सौन्दर्यके प्रतीक स्वरूप है। भारतीय बौद्ध परम्पारामें उत्तर मध्यकालीन पद्मपाणि या अवलोकितेश्वरकी मूर्तिकी पीठिका भी कमलयक्त है। सम्भवतः वैष्णव प्रभावसे ही प्रभावित होकर शिल्पियोंने बौद्ध प्रतिमाओंमें कमलको पीठिका रूपमें तैयार किया हो । महायान बौद्धधर्मकी सर्वश्रेष्ठ देवी प्रज्ञा पारमिताकी एक प्रतिमामें, जो १३ वीं शतीकी है तथा जावासे प्राप्त हुई है, पीठिका कमलकी बनी है । यह देवी बुद्धों और बोधिसत्वोंकी मूल शक्ति है।
बादकी कलामें कमल कई रूपोंमें अंकित हुआ। गोमूत्रिकाओं (बेलों) में कमलका प्रयोग बहुतायतसे होता था। जहाँ कहीं भी अलंकरणकी आवश्यकता होती थी और सुविधा होती थी, वहाँ कमल किसी-नरूपमें जरूर अंकित किया जाता था। प्राचीन कालमें स्त्रियोंके श्रृंगारका प्रधान पुष्प कमल था जो हस्ते
से प्रकट है । अजन्ताके चित्रोंमें तो कमलकी इतनी बहलता है कि चित्रकारको चित्रकारी करते समय बस एक ही पंक्ति 'नव कंज लोचन कंज मखकर कंज पद कंजारुणम्' याद आ रही थी। वैसे भी, भारतीय कवि, चित्रकार, साहित्यकार आदिने कमलकी कोमलता और सुन्दरताका मुख्य आधार माना
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