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व्यवसायमें लगा और दुकानदारी करने लगा। मुझे व्यवसाय करते एक वर्ष ही हुआ था कि मेरे पास स्याद्वाद महाविद्यालयसे पत्र पहुँचा कि आपका स्थान रिक्त है। आप आना चाहें, तो आ सकते हैं। इस तरह मैं भाग्यवश पुनः बनारस पहँच गया। इस घटनाने मुझे भाग्यवादी बना दिया। मुझे अपनी आजीविका के लिए किंचित् भी प्रयत्न नहीं करना पड़ा। इसमें मेरा केवल वही प्रयत्न काम आया जो मैंने विद्यार्जनमें किया था । यदि मैं अपने प्रथम एक वर्षके अध्यापन कालमें सफल न होता, तो मुझे तीन वर्षके पश्चात् कौन स्मरण करता? किन्तु मेरा भाग्य मेरे साथ था। उसने ही मुझे मेरे जीवन-पथपर लाकर खड़ा किया और इस तरह मैंने जो आठ वर्ष तक परिश्रमपूर्वक विद्याध्ययन किया था, उसका उपयोग हो सका। अन्यथा आज कौन मुझे जानता ? इसे मैंने श्री स्याद्वाद महाविद्यालय और जिनका य जन्मस्थान है, उन सुपार्श्वनाथ भगवान्की शुभ भक्तिका ही प्रसाद माना है और उन्होंके पाद-पंकजमें मेरा जीवन बीता है। यहाँ रहकर मैंने क्या नहीं पाया ? सभी कूछ तो पाया-विद्या, पत्नी, सन्तान, सुख-समृद्धि, यश-सम्मान ।
वाराणसी विद्याकी राजपुरी है । संस्कृतके विद्वानोंकी खान है। यहाँ रहकर मेरा समस्त जीवन पठन-पाठन और लेखनमें ही बीता है। घर और विद्यालयके सिवाय मेरी अन्यत्र उठ-बैठ नहीं रही। यहाँ मेरा कोई शत्रु नहीं, तो मित्र भी नहीं। छात्रोंसे मैंने सदा ही एक-सा व्यवहार किया और जानबूझकर किसीके साथ पक्षपात नहीं किया। मेरे विद्यार्थी प्रायः बुन्देलखण्डके होते थे। मेरे सहाध्यायी भी वहींके थे। फलतः उन्हींके साथ मेरा विशेष सम्पर्क रहा । यतः विद्वान् बुन्देलखण्डमें ही होते हैं, अतः आज भी मेरे सुपरिचित मुझे बुन्देलखण्डका समझते हैं ।
यहाँ रहते हुए मैं समाजके सम्पर्कमें भी आया। सबसे प्रथम मुझे शास्त्र-प्रवचनके लिए कलकत्ता रथयात्रा महोत्सव पर जाना पड़ा। उस समय कलकत्तामें पं० झम्मनलालजी, पं० गजाधरलालजी, पं० श्रीलालजी आदि विद्वान् बसते थे। मेरी प्रथम शास्त्रसभामें ये सब उपस्थित थे। मुझसे एक प्रश्न किया गया जो मेरे लिए एकदम नया था । किन्तु मैं घबराया नहीं और मैंने अपनी बुद्धिसे जो उत्तर दिया, वह ठीक निकला। इससे मेरा साहस बढ़ा। उस समय जीवदया प्रचारिणी सभाके मंत्री पं० बाबुरामजी भी उपस्थित थे। जब मैं शास्त्र बाँचकर उठा, तो उन्होंने मेरी पीठ ठोंकी। मैं पास हआ।
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उस समय जैन मित्रमण्डल, धर्मपुरा, दिल्ली महावीर जयन्ती बड़े ठाठसे मनाता था और विद्वानोंका वहाँ जमघट रहता था। उसमें सम्मिलित होना सौभाग्य माना जाता था । मुझे भी वह सौभाग्य प्राप्त हुआ। वह मेरा प्रथम सार्वजनिक भाषण था । अतः तैयारी करके गया था । सभापतिके आसनपर बैरिस्टर चम्पतराय विराजमान थे । मेरे भाषणके मध्यमें मण्डलके प्रधान मंत्री बा० उमरावसिंहजीने सभापतिसे कहा-बढ़ा जमा हुआ भाषण हो रहा है। जब मैंने यह कहकर भाषण समाप्त किया कि मैं थक गया हूँ, तो बैरिस्टर सा० तत्काल बोले-आप बोलते-बोलते भले ही थक गये हों, हम लोग तो सुनते-सुनते नहीं थके।
उसी साल मुझे धर्मपुरा, दिल्लीसे दशलक्षणीका निमंत्रण मिला और सबसे प्रथम मानपत्र भी मुझे वहींसे मिला । यह घटना सन् १९३४ की है। इस तरह मैं धीरे-धीरे समाजके सम्पर्कमें आया और मुझे उससे प्रोत्साहन मिलता गया।
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मेरे बाल सहाध्यायी पं० राजेन्द्रकुमारजी उस समय अम्बाला छावनीमें लाला शिब्बामलजीकी पुत्री चम्पावतीको पढ़ाते थे। चम्पावतीका स्वर्गवास होनेपर उनकी स्मृतिमें एक ट्रैक्टमाला स्थापित की गई, और उसमें मुझे भी एक ट्रैक्ट अहिंसा शीर्षक लिखना पड़ा। संभवतया वह मेरा प्रथम लेखन कार्य था।
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