________________
१९५५ में प्रकाशित ३७० स्नातकोंकी सूचीमें लगभग २४० के इस क्षेत्रके होनेके तथ्यसे होती है। यहाँ बुन्देलखण्डका अभिप्राय बृहत्तर बुन्देलखण्डसे लेना चाहिये जो बुन्देली भाषाका क्षेत्र है। इसमें वर्तमान मध्यप्रदेशका विन्ध्यक्षेत्र, महाकोशल, कुछ मालव क्षेत्र तथा उत्तरप्रदेशके कुछ जिले समाहित होते हैं और इसीलिये यह सम्भव हो सका है कि आज इस क्षेत्रके प्रत्येक नगर और अच्छे ग्राममें इस विद्यालयका स्नातक पाया जाता है । यही नहीं, कहीं-कहीं तो स्नातक पीढ़ियाँ तक पाई जाती है। ये सभी स्नातक जहाँ अपने काशी वासके प्रति गर्वका अनुभव करते हैं, वहीं अपने क्रिया-कलापोंसे काशीको गौरवान्वित भी कर रहे हैं। इस कथनमें प्राकृतिक नियमानुसार, अपवादोंकी कमी नहीं है ।
उपरोक्तसे स्पष्ट है कि स्याद्वाद विद्यालयका विद्यार्थी समुदाय बुन्देलखण्ड बहुल रहा है। इसीलिये वहाँके अध्यापकों और अधिकारियोंकी यहाँके छात्रोंके प्रति एक विशेष प्रकारकी अनुरागात्मक भावना तथा विद्यादानके प्रति सजीवता पाई जावे, इसे सहज प्रकृति ही मानना चाहिये। १९२७ से विद्यालयके प्रधानाध्यापक और वर्तमान अधिष्ठाता पण्डित कैलाशचन्द्र शास्त्रीको तो इस क्षेत्रके विद्यार्थियोंसे और प्रगाढ़ स्नेह संभावित है क्योंकि उन्हें बुन्देलखण्डके ही कुछ विद्वानोंने काशीमें पढ़ाया है। इसके अतिरिक्त, इस क्षेत्रके स्नातकोंने उनके साथ स्याद्वाद महाविद्यालयमें अध्ययन और अध्यापन भी किया है। इस तरह बुन्देलखण्ड क्षेत्र स्याद्वादके वर्तमान अधिष्ठाताकी गरुभमि, सहपाठी भमि, सहकर्मी भमि तथा विद्यार्थी भूमि है। अनेक तीर्थक्षेत्रोंके कारण यह धार्मिक आस्थाकी भूमि तो है ही। इन कारणोंसे पण्डितजीके मनमें अन्य क्षेत्रोंकी तुलनामें इस क्षेत्रके स्नातकोंके प्रति बहगणित अनुराग और सदभावना रही है। उन्होने इसे अगणित अवसरों पर अनेक उत्सवों एवं व्यक्तिगत सम्पर्कोमें व्यक्त भी किया है। इस क्षेत्रके विद्यार्थियोंने यह अनुभव किया है कि पण्डितजी न केवल विद्यागुरु ही हैं अपितु वे जीवनगुरु भी हैं। उनके आशीर्वादात्मक सहयोगसे इस क्षेत्रके अनेक विद्यार्थी भारतके विभिन्न प्रदेशोंमें नियोजित होकर आपकी गाथाका परोक्ष विवरण देते हैं। पूर्वसे पश्चिम तथा उत्तरसे दक्षिण किसी ओर भी प्रमुख नगरमें जाइये, आपको इस क्षेत्रका विद्वान् अवश्य मिलेगा।
इस क्षेत्रके प्रति अपार आकर्षणका ही यह फल है कि इस क्षेत्रके जिस किसी भी उत्सवमें आपको आमंत्रित किया जाता है आप उसमें अत्यंत सजीवताके साथ सम्मिलित होते हैं । दशलक्षण, महावीर जयंती, गजरथोत्सव, धर्मचक्र स्वागत आदि पर आपने जबलपुर, ललितपुर, द्रोणगिर और सतना, जैसे अनेक स्थानों पर अपने प्रवचन दिये हैं। आपको इन यात्राओंके समय आपकी क्षेत्रीय शिष्टमण्डलीकी प्रभा देखते ही बनती है। यह अपने जीवन उपकर्ता तथा संस्कर्तासे आज अधिक जीवन्त प्रेरणा लेती है क्योंकि विद्यार्थी जीवन तो परोक्षतः ही प्रभाववादी रहा होगा। उस समय इतनी मानसिक या बौद्धिक परिपक्वता कहाँ रहती है जो स्थायी प्रभाव कर गुणोंका अनुकरण कर सके । वह तो विद्रोहका जीवन होता है ।
पण्डितजीने अपने जीवन में दोनों प्रकारके बुन्देलखंडोंके शिष्य देखे हैं विद्रोही और अनुयायी । सम्भवतः जो विद्यार्थी जीवनमें विद्रोही थे. वे आज या तो उनके उत्कट अनुयायी बन गये है या फिर प्रचण्ड विद्रोही हो गये हैं। पर आदर्श जीवनदर्शन देने और पालने वालेके लिए यह स्थिति तो सामान्य ही है। फलतः आपका आशीर्वाद दोनोंको समान रूपसे मिलता रहता है। मुझे याद है कि एक बार स्याद्वाद महाविद्यालयमें यह प्रश्न एक जटिल रूप लिये हये था कि संस्कृतके साथ अंग्रेजी पढ़ी जाय या नहीं, अनेक विद्यार्थियोंकी इस बातमें रुचि रही है कि आजीविकाके क्षेत्रकी सम्भावनाओंको उन्नत करनेके लिए धार्मिक शिक्षाके साथ लौकिक शिक्षाकी उपाधियाँ भी होनी चाहिये। इस रुचिका एक और भी प्रेरणा स्रोत था। उस समयके जैन विद्यालयोंके अनेक प्रमुख जैन विद्वान केवल लौकिक शिक्षा ही ले रहे थे ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org