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सुन्दरी दोनोंको उच्च शिक्षाकी प्रेरणा दी थी। इससे स्पष्ट है कि उस समय नारीको पुरुषके समान शिक्षा लेनेकी सुविधा थी। ब्राह्मी और सुन्दरी-इन दोनों कन्याओंने अंकविद्या और अक्षरविद्यामें प्रावीण्य प्राप्त किया था। अपने पिताके धीर, गम्भीर और विद्वत्तापूर्ण व्यक्तित्त्वका प्रतिबिम्ब उनके मन पर पड़ा था। अपने बन्धु भरतकी अनुमतिसे इन दोनोंने भगवान् ऋषभदेवसे ही आर्यिका व्रतकी दीक्षा ले ली और ज्ञानसाधना की। उनके द्वारा प्रस्थापित किये चतुर्विध संघके आर्यिकासंघकी गणिनी (प्रमुख) आर्यिका ब्राह्मी ही थी। राजव्यवहारकी उन्हें पूर्ण जानकारी थी।
कुछ जैन स्त्रियोंने विवाहपूर्व और विवाहके बाद युद्धभूमि पर शौर्य दिखाया। पंजिरीके समिध राजाकी राजकन्या अर्धागिनीने खारवेल राजाके विरुद्ध किये गये आक्रमणमें उसको सहयोग दिया। इतना ही नहीं, उसने इस युद्धके लिये महिलाओंकी स्वतन्त्रसेना खड़ीकी थी। युद्ध में राजा खारवेलके विजय पाने पर इसने उनका अर्धाङ्गिनी पद स्वीकार किया । वह धर्मनिष्ट और दानवीर थी, ऐसा स्पष्ट उल्लेख शिलालेखमें मिलता है। गंग घराने के सरदार नामकी लड़की और राजा विरवर लोकविद्याधरकी पत्नी सामिभबबे युद्धकी सभी कलाओंमें पारंगत थी । सामिमबबेके मर्मस्थल पर वाण लगनेसे इसे मूच्र्छा आ गई और भगवान् जिनेन्द्रका नाम स्मरण करते-करते उसने इहलोककी यात्रा समाप्त की । विजय नगरके राज्यकी सरदार चम्पा की कन्या राणी भैरव देवीने विजयनगरका साम्राज्य नष्ट होनेके बाद अपना स्वतन्त्र राज्य स्थापित किया और उसे मातृ-सत्ताक पद्धतिसे कई बरसों तक चलाया। नाजलकोंड देशके अधिकारी नागार्जुनकी मृत्युके बाद कदम्बराज अकालवर्षने उनकी देवी वीरांगना अक्कमवके कन्धे पर राज्यकी जिम्मेदारी रक्खी। आलेखोंमें इसे युद्ध-शक्ति-मुक्ता और जिनेन्द्र-शासनभक्ता कहा गया है। अपने अन्तकाल तक उसने राज्य की जिम्मेदारी सम्भाली।
गंग राजवंशकी अनेक नारियोंने राज्यकी जिम्मेदारी सम्भाल कर अनेक जिन मन्दिर व तालाब बनाये । उनके देखभालकी व्यवस्था की । धर्मकार्योंमें बड़े दान दिये । इन महिलाओंमें चम्पला राणीका नाम सर्व प्रथम लिया जाता है। जैनधर्मकी सर्वाङ्गीण उन्नति और प्रसादके लिये उसने जिन भवनोंका निर्माण किया । श्रवणवेलगोलके शिलालेख क्रमांक ४९६ से पता चलता है कि जीक्कमवे शुभचन्द्र देवकी शिष्या थी
और योग्यता और कुशलतासे राज्य करनेके साथ ही धर्म प्रचारके लिये भी उसने अनेक जैन प्रतिमाओंकी स्थापना की थी। जैनधर्ममें कन्याओंका स्थान
____ आदिपुराण, पर्व १८ श्लोक ७६ के अनुसार इस कालमें पुरुषोंके साथ ही कन्याओंके विविध संस्कार किये जाते थे। राज्य परिवारकी लड़कियोंकी स्थिति तो कई गुनी अच्छी थी। कन्या पिताकी सम्पत्तिमेंसे दान भी कर सकती थी। सुलोचनाने अपनी कौमार्यावस्थामें रत्नमयी जिनप्रतिमाकी निर्मिति की थी और उनकी प्रतिष्ठा करनेके लिए पूजाभिषेक विधिका भी आयोजन किया था। कन्यायें पढ़ते समय अनेक विषयोंका ज्ञान प्राप्त करती थीं और वे अपने पिताके साथ उपयक्त विषयों पर चर्चा भी करती थीं। वज्जदंत चक्रवर्ती अपनी लड़कीके साथ अनेक विषयों पर चर्चा करता था। विवाह और विवाहोत्तर जीवन
विवाह स्त्रीके जीवनमें महत्त्वपूर्ण घटना मानी जाती थी। उस वक्त आजन्म अविवाहित रहकर समाजसेवा और आत्म-कल्याण करनेकी भी अनज्ञा थी। विवाहको धार्मिक एवं आध्यात्मिक एकताके लिये स्वीकार किया हुआ बन्धन माना जाता था।
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