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कन्या चन्द्रासनीने आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत स्वीकार कर भगवान् महावीरसे दीक्षा ली और आर्थिका नका अनुष्ठान किया । वह महावीरके ३६ हजार आर्यिकाओंके संघ में गणिका बनी । पम्बबबे नामकी कर्नाटककी नारीने तीस साल तपश्चरण किया । विष्णुवर्धन राजाकी रानी शांतल देवीने ११२३ में श्रवणबेलगोलमें भगवान जिनेन्द्रकी विशालकाय प्रतिमा स्थापित की तथा कुछ काल तक अनशन और ऊनोदर व्रतका पालन किया ।
साहित्य क्षेत्र कार्य
अनेक जैन नारियोंने लेखिका और कवियित्रीके रूपमें साहित्यके क्षेत्रमें योगदान दिया है । १५६६ में रणमतिने यशोधरकाक नामका काव्य लिखा । आर्य रत्नमतीकी समकितरास एक हिन्दी - गुजराती मिश्र काव्यकी रचना है। कर्नाटक में साहित्यके क्षेत्रमें उज्ज्वल नाम कमाने वाली कन्ती प्रसिद्ध है । उसे राजदरबारमें ही सम्मान और उच्च पद मिला था । महाकवि रत्नने अपनी अमरकृति अजितनाथपुराणकी रचना दान-चिंतामणि अंतेते मब्बेके सहकार्यसे ही ९८३ में की । श्वेताम्बर पथकी सूरिचरित्र लिखने वाली गुणसमृद्धि महत्तराके चारुदत्तचरित्र लिखने वाली पद्मश्री, कनकावती आख्यान लिखने वाली हेमश्री नामके महिलायें प्रसिद्ध हैं । काव्यक्षेत्र में प्रतिभा सम्पन्न साहित्य निर्माणका महत्वपूर्ण कार्य अनेक जैन महिलाओंने किया है । उदाहरण के लिये अनुलक्ष्मी, अवन्ती सुन्दरी, माधवी आदि प्राकृत साहित्यकी पूरक कवियित्रियाँ हैं । उनकी रचनायें जीवन दान, प्रेम, संगीत, आनन्द और व्यथा, आशा और निराशा, उत्साह आदि गुणोंसे भरी हुई है । इसके अलावा नृत्य, गायन, चित्रकला, शिल्पकला आदि क्षेत्रों में भी जैन महिलाओं ने असामान्य प्रगति की है । प्राचीन ऐतिहासिक कालमें जैन नारीने जीवनके सभी क्षेत्रों में अपना सहयोग दिया है । समाज भी उसकी ओर सम्मान की दृष्टिसे देखा था । समाजने नारीको उसकी प्रगति के लिये सब सुविधायें दी थीं। पुरुष और नारीमें सामाजिक सुविधायें मिलनेकी दृष्टिसे अन्तर नहीं था ।
नारीकी गुलामीका प्रारम्भ
मध्ययुगके विदेशी शासकोंके आक्रमणके साथ समाजने स्त्रियों पर अनेक बन्धन लगाये । घरकी दीवारोंके बाहरकी हवा लगनेमें धर्म भ्रष्ट होनेका डर उसके मनमें निर्माण किया । इसी कारण शिक्षा, धर्म, संस्कार, तत्त्वज्ञान आदिमें नारी बहुत पीछे! गई । व्यवसायके क्षेत्रमें नारीका प्रवेश रोका गया । आधुनिक काल में भारतीय नारी का स्थान
जब भारतीय संविधानकी रचनाकी गयी, तब उसमें स्त्रियोंको सामाजिक, आर्थिक और राजतीतिक क्षेत्रोंमें पुरुषोंकी बराबरीका स्थान देनेकी घोषणा की गई। इससे लगने लगा कि स्त्रीजाति स्वतन्त्र हो गयी है, उसकी दुरवस्था समाप्त हो चुकी है। उसे शासन और नौकरियों में पुरुषोंके समान मान मिलने लगा है । पर असीम दारिद्रय, अज्ञान, रुढ़ियों व परम्पराओंने इस मान्यताको निष्प्रभ कर दिया है। यहाँ तक कि आज भी सुशिक्षित व्यक्ति अपनी विधवा हुई पुत्रवधूका धर्म और परम्पराके नाम पर मुण्डन करा कर उसका चेहरा विद्रूप कर डालनेकी हिम्मत कर जाता है । काम देनेके बहाने आदिवासी युवतियोंको फुसला कर बेंच डालने वाले मनुष्य रूपी भेड़िये आज भी इस समाजमें मिल जाते हैं । गाँवोंमें नौकरी करनेके लिये आयी हुई महिलाओं पर इन समाजकंटकों द्वारा आज भी अत्याचार किया जा रहा है । क्या यही वह समानता है जिसका संविधान में गुण गाया हजारों वर्षोंसे चली आ रही इस और पुरानी मान्यताओंके अज्ञानी पुरुषोंकी
गया 1 पुरुषप्रधान समाज रचनाकी जड़ें बड़ी गहरी । धार्मिक रुढ़ियों 'स्त्री स्वातन्त्र्यके योग्य होती नहीं' की विचारधारा आसानीसे
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