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भक्ति और अनुराग
शांडिल्य, नारद आदि भक्ति आचार्योंने भगवान्के प्रति परम अनुरक्ति को भक्ति कहा है । तुलसीके मतानुसार भी भक्ति प्रेम स्वरूप है। रामके प्रति प्रीति ही भक्ति है:
प्रीति राम सों नीति पथ, चलिय रागरिस जीति ।
तुलसी हंसनके मते इहै भगतिकी रीति ।। उन्होंने अन्यत्र भी कहा है :
बिनु छल विस्वनाथ पदनेहू । राम भगत कर लच्छन एहू ॥ भगवान्के प्रति प्रेमकी अतिशयता पर बल देनेके लिए ही तुलसीने उनसे प्रार्थना की है :
कामिहि नारि पिआरि जिमि,
लोभिन्हि प्रिय जिमि दाम । तिमि रघुनाथ निरन्तर,
प्रिय लागहं मोहि राम ॥ चातक आदि उपमानों द्वारा भी उन्होंने भक्तिकी निष्कामता और अनन्य शारणागतिका निदर्शन किया है।
भक्तिके निरूपणमें प्रयुक्त अनुराग शब्द कुछ विचारकोंको अप्रिय सा लगा है लेकिन हमें यह समझना चाहिये कि जिससे अनुराग किया जाता है, उसके अनुरूप बननेका भी अनुरागी प्रयास अवश्य ही करता है । जैन संस्कृतिमें भक्त भगवान्के प्रति पूर्ण अनुराग प्रदर्शित करता है। ये भगवान् वीतरागी होते हैं, अतः भक्त शनैः शनैः अनुराग करता हुआ एक दिन वीतरागी बन जाता है तथा जीवनके चरम लक्ष्यको पाकर अपने आपको कृतकृत्य मानता है।
आचार्य पूज्यपादने भक्तिकी परिभाषा लिखते समय कहा है कि अरहंत. आचार्य, बहुश्रुत और प्रवचनके भावविशुद्धियुक्त अनुराग ही भक्ति है। आचार्य सोमदेवका कथन है कि जिन, जिनागम और तप तथा श्रुतमें परायण आचार्यमें सद्भाव विशुद्धिसे सम्पन्न अनुराग भक्ति कहलाता है। हरिभक्तिरसामृतसिन्धुमें भी लिखा है कि इष्टमें उत्पन्न हुए स्वाभाविक अनुरागको ही भक्ति कहते हैं । महात्मा तुलसी दासके मतमें भी यही सत्य है । इसी की व्याख्या करते हुए डा. वासुदेवशरण अग्रवालका कथन है कि जब अनुराग स्त्रीविशेषके लिये न रहकर, प्रेम, रूप और तप्तिकी समष्टि किसी दिव्य तत्त्व या रामके लिये हो जायँ, तो वही भक्तिकी सर्वोत्तम मनोदशा है।
अनुरागमें जैसी तल्लीनता और रुचि एकनिष्ठता सम्भव है, अन्यत्र नहीं। जैन कवि आनन्दघनने भक्ति पर लिखते हुए कहा है कि जिस प्रकार उदर भरणके लिये गौयें बनमें जाती है, घास चरती हैं, चारों ओर फिरती हैं, पर उनका मन अपने बछड़े में लगा रहता है, वैसे ही संसारके कामोंको करते हए भी भक्त का मन भगवान्के चरणोंमें लगा रहता है ।
जैनोंका भगवान् वीतरागी है। वह सब प्रकारके रागोंसे उन्मुक्त होनेका उपदेश देता है। राग कैसा ही हो, कर्मोंके आस्रव (आगमन) का कारण है। फिर उस भगवान्में, जो स्वयं वीतरागी है, राग कैसे सम्भव है ? इसका उत्तर देते हुए आचार्य समन्तभद्रका कथन है कि भगवानसे अनुरागके कारण जो पाप होता है, वह उससे उत्पन्न बहुपुण्य राशिकी तुलनामें अत्यल्प होता है। यह बहुपुण्य राशि भी उसी प्रकार दोषका कारण नहीं बनती जिस प्रकार कि विषयकी एक कणिका, शीतशिवाम्बुराशि समुद्रको दूषित ३. तुलसी, सम्पादक उदयभानुसिंह, पृ० १९३ ।
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