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करनेमें समर्थ नहीं होती। आचार्य कुन्दकुन्दने वीतरागियोंमें अनुराग करने वाले को सच्चा योगी कहा हैं । उनका यह भी कथन है कि आचार्य, उपाध्याय और साधुओंमें प्रीति करने वाला सम्यग्दृष्टि हो जाता है । उसकी दृष्टिमें वीतरागीमें किया गया अनुराग यत्किञ्चित् भी पापका कारण नहीं है। परमें होने वाला राग ही बन्धका हेतु है। वीतरागी परमात्मा पर नहीं, अपितु स्व आत्मा ही है। श्रीयोगीन्दुका कथन है कि मोक्षमें रहने वाले सिद्ध और देहमें तिष्ठने वाले आत्मामें कोई भेद नहीं है। जिनेन्द्र में अनुराग करना अपनी आत्मामें ही प्रेम करना है। वीतरागगें किया गया अनुराग निष्काम ही है। उनमें किसी प्रकारको कामना सन्निहित नहीं है। वह भगवानसे अपने ऊपर न दया चाहता है, न अनुग्रह और न प्रेम । जैन भक्तिका ऐसा निष्काम अनुराग गीताके अतिरिक्त अन्यत्र देखनेको नहीं मिलता है।
ज्ञान और भक्ति-ये दोनों एक दूसरेके पूरक कहे गये हैं-ज्ञान भक्तिकी परिपुष्टि करता हुआ, इसका जनक भी कहा गया है । इसके अभावमें भक्ति अपनी सार्थकतासे विहीन कही गई है। जिस प्रकार सम्यग्दर्शनके बिना सम्यग ज्ञान नहीं होता, उसी प्रकार ज्ञान की उपलब्धि न होने पर भक्तिकी प्राप्ति भी असम्भाव्य मानी गई है।
गम्भीरतासे विचार करने पर जो भक्तिका फल है, वही ज्ञानका भी है । ज्ञान सुगम न होकर कष्टसाध्य है और भक्ति अपेक्षाकृत सरल एवं सलभ्य है। ज्ञान मार्गमें बद्धिका प्राबल्य देखा जाता है जबकि भक्तिमें भावका । गोस्वामी तुलसीदासने भी इसी तथ्यको स्वीकार किया है । गोस्वामीजी ज्ञान और भक्तिके समन्वयमें विशेषतः विश्वास करते हैं।
जिस प्रकार ज्ञान और भक्ति एक-दूसरेके पूरक हैं, उसी प्रकार ध्यान और भक्तिकी एकरूपता भी सर्वमान्य है। इन दोनोंमें आत्मचिंतन और एकाग्रता विद्यमान है जो आत्मस्वरूपके लिये परमावश्यक है।
इस प्रकार भक्तिका स्वरूप बड़ा मनोरम तथा मानस विशुद्धिका उत्कृष्ट साधन है। इस परम साधनाके बारह भेद स्वीकार किये गये हैं। वे इस प्रकार है : सिद्धभक्ति, श्रुतभक्ति, चरित्रभक्ति, योगभक्ति, आचार्यभक्ति, पंचगुरुभक्ति, तीर्थंकरभक्ति, शान्तिभक्ति, समाधिभक्ति, निर्वाणभक्ति, नन्दीश्वरभक्ति और चैत्यभक्ति । तीर्थंकर और समाधिभक्तिका पाठन एक-दो अवसरों पर ही होता है। अतः उनका अन्य भक्तियोंमें अन्तर्भाव मान लिया गया है। इस भाँति दश भक्तियोंकी ही मान्यता है ।।
विभिन्न भक्तियोंके विविध साधन हैं जिनसे भक्तके हृदयमें भक्तिदीपक प्रज्वलित होता है और क्षण-प्रतिक्षण इस पुनीत आलोकमें उसका कर्म जनित तम विलीन हो जाता है । वे साधन व्यक्तिकी विवेकपूर्ण अभिव्यक्तियाँ भी हैं।
भागवतमें भक्ति-भागवतमें भक्तिके साध्य और साधन-दोनों ही पक्षोंका विवेचन हुआ है । साधना रूपा भक्तिको नवधा भक्ति, वैधी भक्ति अथवा मर्यादा भक्ति कहते हैं और साध्यरूपा भक्तिको प्रेमाभक्ति तथा रागानुगा अथवा रासात्मिका भक्तिके नामसे अभिहित किया जाता है। साधना रूपा भक्तिके पाँच अंग माने गये हैं : उपासक, उपास्य, पूजाद्रव्य, पूजाविधि और मन्त्र-जप । श्री भागवतमें भक्तिके कई प्रकारसे भेद गिनाये हैं। तृतीय स्कन्धमें भक्तिके चार प्रकार माने हैं : सात्त्विकी, राजसी, तामसी तथा निर्गण । फिर सप्तम स्कन्धमें नौ भेद बतलाये है : श्रवण कीर्तन. विष्णस्मरण. पादसेवन. अर्चन. दास्य, सख्य और आत्म-निवेदन । १. २. डा० प्रेमसागर जैन : जैनभक्तिकाव्यकी पृष्ठभूमि, पृष्ठ ८-१० और ६४ ३. श्रीमद्भागवत सप्तम स्कन्ध, ५।२३
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