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उल्लेख पाया जाता है कि आचार्य वज्रके शिष्य आचार्य रक्षितका जन्म दशपुर (मंदसौर) में हुआ था तथा विद्याध्ययन उज्जयिनीमें हुआ था। आचार्य समंतभा ने भी मालवा और विदिशा क्षेत्रमें विहार किया था, ऐसा वर्णन श्रवणवेलगोलके मल्लिषेणप्रशस्ति' नामक शिलालेख में है। आचार्य सिद्धसेनके भी उज्जयिनीमें विहार, राजा विक्रमादित्य द्वारा उनके सम्मान और द्वात्रिंशिका रचनाकी कथाएँ प्रभावकचरित्र, प्रबंधकोश आदिमें प्राप्त हैं।
विदिशाके निकट उदयगिरिकी एक पार्श्वनाथ मूर्तिकी प्रतिष्ठापना आचार्य भद्र की परम्पराके आचार्य गोशर्माके शिष्य शंकर मुनि ने सन् ४२६ में की थी, ऐसा वहाँके शिलालेख से ज्ञात होता है। विदिशासे ही प्राप्त एक अन्य जिन मूर्तिकी प्रतिष्ठापना रामगुप्तके राज्यकालमें आचार्य सर्वसेन की थी, ऐसा उसके पादपीठके लेखसे ज्ञात होता है।
आठवींसे दसवीं सदी-गोपाचल (ग्वालियर) में राजा आम (नागभट) द्वारा निर्मित जिन मंदिर की प्रतिष्ठा आचार्य वप्पभट्टिने की थी, ऐसा प्रबंधकोशसे ज्ञात होता है। आमके पौत्र भोजके आमंत्रण पर वप्पभट्टिके गुरुबंधु नन्नसूरि गोपाचल पधारे थे । यह भी इस सन्दर्भ में उल्लिखित है।
सन् ७८४ में आचार्य जिनसेनने हरिवंशपुराणकी रचना वर्धमानपुरमें की थी। एक मतके अनुसार उज्जयनीके निकटवर्ती नगर बदनावरका ही पुराना नाम वर्धमानपुर था। हरिषेणाचार्यके बृहत्कथाकोशकी रचना भी इसी नगरमें सन् ९३२ में हुई थी।
आचार्य देवसेन ने धारा नगरमें सम्बत् ९९० में दर्शनसारकी रचना की। इसी अन्तिम गाथाओंमें स्थल-कालका उल्लेख है। खजराहोके शान्तिनाथ मंदिरके स्थापनालेखमें जो सन् ९४४ का है राजा धंग द्वारा सम्मानित श्रेष्ठी पाहिलके साथ महाराजगुरु वासवचन्द्रका भी उल्लेख है। आचार्य अभिमतगतिने सुभाषितरत्नसंदोहकी रचना सन् ९९३ में राजा मुंजके राज्यमें की थी। इनके सन् १०१६ में रचित पंचसंग्रहका रचनास्थान मसूतिकापुर (धारके पास मसोद ग्राम) उल्लिखित है ।
ग्यारहवीं शताब्दी-प्रभावकचरितमें बताया गया है कि आचार्य महासेनने सिन्धुराजके मंत्री पर्पटके आग्रहसे प्रद्युम्नचरित महाकाव्यकी रचना की। इसीके अनुसार आचार्य वर्धमानने धारा नगरमें विहार करते हुये जिनेश्वरको सूरिपद प्रदान किया था। जिनेश्वरके शिष्य अभयदेवसूरिका जन्म भी धारामें ही कहा गया है। इनकी परम्परा खरतरगच्छके नामसे प्रसिद्ध हई। उत्तराध्ययन टीकाकर्ता वादिवताल शान्तिसूरि, महाकवि धनपालने गुरु महेन्द्रसूरि तथा नाभेयनेमिद्विसन्धान काव्यके रचयिता सूराचार्यका धारा नगरमें विहार और राजा भोज द्वारा उनके सम्मानका वृत्तान्त भी प्रभावकचरितमें मिलता है।
अपभ्रंश कथाकोश के रचयिता श्रीचन्द्रके कथनानुसार उनके गुरुके प्रगुरु आचार्य श्रुतकीर्ति राजा भोज द्वारा सम्मानित हुये थे। उन्हें गांगेय राजा द्वारा भी सम्मान प्राप्त हुआ था इससे प्रतीत होता है कि
१. जैनशिलालेखसंग्रह, भा० १, प्रस्तावना, पृ० १४१ २. जैनशिलालेखसंग्रह, भा॰ २, पृ० ५७ ३. जैनसाहित्य और इतिहास, (प्रेमीजी), पृ० ११७ ४. प्रबन्धकोष, पृ० ८४ (८-) जैन साहित्य और इतिहास, पृ० १४७, २७९, ४१२ ५. जैनशिलालेखसंग्रह, भा॰ २, पृ० १९० ६. प्रभावकचरित, पृ० २६३, २६७, २१८, २२४ ७. जैनग्रन्थ प्रशस्तिसंग्रह (परमानन्दजी), भा० २, पृ० ७
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