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मल्लिभूषणने भी माण्डव और ग्वालियरमें विहार किया था। इन दोनोंका समय पन्द्रहवीं सदी की उत्तरार्द्ध है। इसी समय आचार्य कमलकीर्तिने सोनागिरिमें आचार्य शुभचन्द्रको पट्टाधीश बनाया था, ऐसा कवि रइधू के हरिवंशपुराणसे ज्ञात होता है ।'
आचार्य सिंहनन्दि मालव प्रदेशमें कार्यरत थे। ऐसा श्रुतसागरकृत यशस्तिलकचन्द्रिकाकी अन्तिम प्रशस्तिसे ज्ञात होता है। नेमिदत्तकृत श्रीपालचरित (सन् १४२८)में भी यह उल्लेख है । सोनागिरिके सन् १४४३ के एक मूर्तिलेखसे प्रतिष्ठापक आचार्य यशःसेनका परिचय मिलता है । यहींके सन् १६०६ के एक अन्य मूर्तिलेखमें आचार्य यशोनिधिका नाम उल्लिखित है।
सत्रहवीं शताब्दी-आचार्य धर्मकीर्तिने सन् १६१२ में मालवामें पद्मपुराणकी रचना की थी। इन्हींके हरिवंशपुराणकी प्रशस्तिके अनुसार इसके गुरु आचार्य ललितकीर्तिका भी मालवामें विहार हुआ था । ललितकीर्तिका सन् १६१८ का एक मूर्तिलेख राणोद (शिवपुरीके समीप) तथा धर्मकीर्तिका सन् १६२४ का एक मूर्तिलेख सोनागिरिमें प्राप्त हुआ है। वहाँके सन् १६१४ के एक मूर्तिलेखमें आचार्य लक्ष्मीसेन प्रतिष्ठापकके रूपमें उल्लिखित हैं। आचार्य केशवसेनने सन् १६३१ में मालवामें कर्णामृतपुराणकी रचना की थी। इनकी और आचार्य विश्वकीर्तिकी चरणपादुकायें सोनागिरिमें ही सन् १६४४ में स्थापित हुई थीं। यहींके सन् १६५१ तथा सन् १६९० के लेखोंसे आचार्य विश्वभूषण द्वारा वहाँ मन्दिर निर्माण
और मूर्तिस्थापनाका पता चलाता है। इसी प्रकार पपौराके सन् १६५१ के तथा अहारके सन् १६५३ के मूर्तिलेखोंसे प्ररिष्ठापक आचार्य सकलकीतिका उल्लेख है। यह भी पता लगता है कि आचार्य सुरेन्द्रकीर्तिने ग्वालियरमें सन १६८३ में रविव्रत कथाकी रचना की थी।
___ अठारहवीं सदी–सोनागिरिके विभिन्न मूर्तिलेखोंसे ज्ञात होता है कि वहाँके प्रतिष्ठापक आचार्य और उनके ज्ञात वर्ष निम्न प्रकार हैं : कुमारसेन और देवसेन, १७०३, वसुदेवकीर्ति, १७५५, महेन्द्रभूषण और देवेन्द्रकीति. १७३२. देवेन्द्र भषण, १७८० एवं महेन्द्रकीति, १७९९ ।
मानपुरा (जिला मन्दसौर)में सन् १७३० में आचार्य देवचन्द्र पट्टाधीश हुये थे, ऐसा एक पुराने पत्रसे ज्ञात होता है । इसी प्रकार हालमे ही प्रकाशित एक लेखसे ज्ञात होता है कि छतरपुरमें सन् १७८३ में आचार्य जिनेन्द्र भूषणने एक मन्दिरकी प्रतिष्ठा करवाई थी।
___ उन्नीसवीं शताब्दी–१° सोनागिरिके उन्नीसवी शताब्दीके लेखोंसे भी अनेक आचार्योंके नाम और मूर्तिस्थापना वर्ष निम्न प्रकार ज्ञात होते है : विजयकीति १८११; सुरेन्द्रभूषण १८३७, राजेन्द्रभूषण १. जैनशिलालेखसंग्रह, भा० ५, पृ० ८२, ९३ २. जैनग्रन्थप्रशस्तिसंग्रह, भा० १, पृ० ३६, ३७; जैनशिलालेखसंग्रह, भा० ५, पृ० १०१, १०३ ३. जैनग्रन्थप्रशस्तिसंग्रह, भाग १, पृ० ५७ ४. जैनशिलालेखसंग्रह, भाग, ५, पृ० १०४, १०५ ५. अनेकान्त, वर्ष ३, पृ० ४४५ एवं वर्ष १०, पृ० ११५ ६. भट्टारकसम्प्रदाय, पृ० ११८ ७. जैनशिलालेखसंग्रह, भा० ५, पृ० १०७, १०९ ८. भट्टारकसम्प्रदाय, पृ० १६५ ९. जैन सन्देश, २८ अप्रैल ७७ १०. जैनशिलालेखसंग्रह, भाग ५, पृ० ११०, ११४
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